यहाँ प्रश्न यह है कि श्रीराम को यह बात कहने की जरूरत क्यों पड़ी। ऐसा तो नहीं था कि लक्ष्मण इतने नासमझ थे कि वे यह बात जानते नहीं थे। श्रीराम के साथ ही उन्होंने गुरू से शिक्षा पायी थी। श्रीराम के साथ ही वे विश्वामित्र के साथ राक्षसों का वध करने गये थे। अभी भी वे तेरह वर्षों से श्रीराम के साथ ही रह रहे थे। तो क्या श्रीराम के व्यक्तित्व और विचारों को अभी तक लक्ष्मण आत्मसात नहीं कर पाये थे? निश्चित रूप से कर चुके होंगे। लेकिन होता यह है कि जब भी किसी को कोई महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाता है, तो उस दायित्त्व को पूरा करने के लिये जिन महत्वपूर्ण तत्त्वों की जरूरत होती है, उन्हें दुहरा देना अच्छा होता है-सामने वाले को याद दिलाने के लिए। दूसरा कारण था प्रकृति की भाषा को समझने का। प्रकृति कभी भी उस तरह बात नहीं करती, जिस तरह आप और मैं करते हैं। वह संकेतों से बात करती है, अप्रत्यक्ष रूप से बात करती है तथा घटनाओं के द्वारा बात करती है। श्रीराम जैसे क्षमतावान व्यक्ति, जिनकी चेतना बिल्कुल शुद्ध है। इस भाषा को समझ लेते हैं। श्रीराम ने यहाँ इसे समझा। निश्चित रूप से उन्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ होगा कि सीता जैसी समझदार नरी स्वर्ण मृग को देखकर भला कैसे इतनी सम्मोहित हो गई। पहली बात तो यही कि सीता राजपुत्री हैं। वे राजवधू भी हैं। इस नाते स्वर्ण का मोह (धन के प्रति आसक्ति) उनको होना ही नहीं चाहिए। यदि यह है, तो सही नहीं है। दूसरी बात यह कि पिछले तेरह सालों तक वन में रहने के दौरान न तो कभी इस तरह का मृग देखने में आया और न ही कभी स्वर्ण मृग के बारे में कहीं सुनने को मिला। यानी कि स्पष्ट है कि स्वर्ण मृग होता ही नहीं है। इसके बावजूद यदि यहाँ वह है,तो निसंदेह रूप से यह अप्राकृतिक है तथा बुद्धि और विवेक का पहला कार्य यह होता है कि उसके प्रति प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करके उस पर विचारपूर्वक निर्णय लें। सीता ने तो यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं किया। स्वर्ण मृग को देखा और सीधे श्रीराम से कहने लगीं कि मुझे उसका चर्म चाहिए।
फिर यह भी की श्रीराम जिस वन में रह रहे थे, वहाँ मायावीय शक्तियों का प्रभाव कम नहीं था। तरह-तरह के राक्षस और राक्षसियाँ वेश बदलकर उस क्षेत्र में घूमते रहते थे। इससे ठीक पहले ही राक्षसी सुर्पणखा एक सुन्दर नारी का वेश धारण करके श्रीराम और लक्ष्मण के समक्ष काम-याचना के लिए आ चुकी थी और अपमानित होने पर अपना विकराल रूप दिखा चुकी थी। श्रीराम को लगा होगा कि इसके बावजूद यदि सीता स्वर्ण मृग के प्रति संदेह नहीं कर रही है, तो निश्चित रूप से विधाता कोई अलग ही विधान रचने जा रहा है। कम से कम यह सामान्य स्थिति तो नहीं ही है। इसलिए वे लक्ष्मण से विशेष रूप से कहते हैं कि तुम बुद्धि और विवेक का उचित उपयोग करके सीता की रखवाली करना। श्रीराम ने प्रकृति के इस संकेत को पकड़ लिया था कि चीज़ें सामान्य नहीं हैं। शायद आगे कुछ घटित होने वाला है।
उस समय मैं लगभग दस-ग्यारह साल का रहा होऊँ, जब गाँव में रह रहे हमारे परिवार में यह घटना घटी थी। चन्द्रमेढ़ा गाँव में मेरे अपने दादा का परिवार रहता था। बगल के ही गाँव में मेरे दादा के बड़े भाई का परिवार रहता था। दोनों परिवार अच्छे थे और बड़े परिवार थे। मुझे याद आ रहा है कि मेरे दादा और मेरे दो चाचा तथा मेरे दादा के बड़े भाई और उनके तीनों बेटे एक घटना को लेकर इतने परेशान हुये थे कि वे सभी तीन दिनों तक अपनी-अपनी साइकिलों पर सवार होकर आसपास के गाँवों में बेतहाशा घूम रहे थे और अन्त में सभी को निराशा हाथ लगी थी।
घटना यूँ थी कि मेरे दादा के बड़े भाई के यहाँ तीन-चार लोग सोना बेचने आये। मुझे याद तो नहीं आ रहा है कि उन लोगों ने सोना किस भाव खरीदा था, लेकिन मैंने अपने दादा जी को मेरी दादी से यह कहते हुए जरूर सुना था कि “सोना बहुत ही सस्ता लगभग आधी कीमत पर मिल रहा था सब उन्होंने ही खरीद लिया। यदि कुछ बच पाता तो अपन भी ले लेते। बेटी की शादी में काम आता।” अब शायद आप समझ गये होंगे कि दोनों परिवार के सारे सदस्य तीन दिनों तक आसपास के गाँव को क्यों छान रहे थे। उस सस्ते सोने को खरीदने के बाद जब वह पीली धातु सुनार को दिखाई गई, तो उसने साफ-साफ घोषणा कर दी कि “यह तो तांबा है, जिस पर सोने की परत चढ़ी हुई है।” यदि आप विश्वास कर सकें तो कर सकते हैं कि दस साल की उम्र में ही अपने दादा को मेरी दादी से बात करते हुए सुनकर मेरे दिमाग में तुरन्त यही प्रश्न आया था कि वे लोग आधी से भी कम कीमत पर सोना क्यों बेच रहे हैं। जाहिर है कि वह सोना तो नहीं ही होगा। यह एक अप्राकृतिक स्थिति थी, अस्वाभाविक स्थिति थी। यदि हम सोचते हैं कि हम इस अस्वाभाविक स्थिति का लाभ उठा लें, तो हमें किसी बड़े नुकसान के लिए तैयार रहना चाहिए। श्रीराम ने यहाँ इसी तरह की सतर्कता बरती थी।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।