यह ‘रामचरितमानस’ का बहुत ही खूबसूरत और रोचक प्रसंग है। प्रसंग कुछ यूँ है कि राम, सीता और लक्ष्मण अपनी कुटिया में बैठे हुए हैं और उसी समय एक स्वर्ण मृग वहाँ आता है। सीता उस मृग को देखकर मोहित हो जाती हैं और अपने पति श्रीराम से अनुरोध करती हैं कि मुझे उसकी खाल चाहिए। श्रीराम कुछ नहीं कहते और सीता को लक्ष्मण की रखवाली में सौंपकर, लक्ष्मण को कुछ आवश्यक निर्देश देकर मृग के पीछे चले जाते हैं। वे मृग का जैसे ही वध करते हैं, मृग के मुँह से ‘लक्ष्मण-लक्ष्मण’ निकलता है। ‘लक्ष्मण’ शब्द सुनकर सीता राम की सुरक्षा के प्रति चिन्तित हो उठती हैं , और लक्ष्मण को राम के पास जाने के लिए कहती हैं। लक्ष्मण सीता को समझाने की कोशिश करते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। तब सीता लक्ष्मण से कुछ ऐसी कड़वी बातें कहती हैं (जिनका उल्लेख नहीं मिलता) कि लक्ष्मण को वहाँ जाना पड़ता है। पीछे से रावण साधू का वेश धारण कर सीता के पास आता है और उनका अपहरण कर लंका ले जाता है।
मुझे ‘रामचरितमानस’ का यह प्रसंग सुन्दर और रोचक इसलिए लगता है, क्योंकि जहाँ इसमें चमत्कार का रोमांच है, वहीं श्रीराम के जीवन-दर्शन का बहुत गहरा अर्थ भी। तो सबसे पहले स्वर्ण मृग की बात। मृग वैसे भी बहुत प्यारा लगता है-कजरारी-सी भोली आँखें, लचीली छरकही देह, छोटी-छोटी कुलांचे और गोल-गोल धब्बे वाली खूबसूरत खाल। लेकिन यदि यही मृग स्वर्ण रंग का हो जाये, तो समझा जा सकता है कि उसकी सुन्दरता कितनी अधिक बढ़ गई होगी। तो सीता, जो वन में पिछले लगभग तेरह सालों से लगातार मृगों के बीच में रह रही थीं यदि अद्भुत और अनोखे उस स्वर्ण मृग को देखकर उससे सम्मोहित हो जाती हैं, तो इसमें उनका कोई विशेष दोष दिखाई नहीं देता। यहाँ दोष की बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि यह स्वर्ण मृग ही सीता के अपहरण का कारण बना था। यहाँ स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षित होकर सीता ने एक ऐसे सामान्य भाव को प्रदर्शित किया है, जो किसी के साथ भी हो सकता है।
लेकिन सवाल यह है कि एक सामान्य आकर्षण और विवेकपूर्ण आकर्षण में क्या कोई फर्क होता है। लक्ष्मण को सीता की रखवाली का दायित्व सौंपते समय राम लक्ष्मण से यह बात विशेष रूप से कहते हैं कि-
सीता केरि करेहूं रखवार।
बुद्धि, विवेक, बल, समय बिचारी।।
यानी कि हे लक्ष्मण, तुम बुद्धि, विवेक, बल और समय, इन चारों का अच्छी तरह विचार करके सीता की रखवाली करना। यहाँ पहली बात तो यह कि श्रीराम ने स्पष्ट रूप से बताया है कि बुद्धि एक बात है और विवेक इससे अलग बात है। बुद्धि ज्ञान का विषय होता है, जबकि विवेक सोचा-समझा हुआ निर्णय होता है। हो सकता है कि कोई व्यक्ति ज्ञान की दृष्टि से तो बहुत ऊँचा हो, लेकिन विवेक की दृष्टि से बहुत छोटा। ठीक इसका उलटा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति हो तो अनपढ़, जिसके पास कोई विशेष ज्ञान नहीं है, लेकिन विवेक की दृष्टि से वह विलक्षण हो। तो यहाँ श्रीराम ने लक्ष्मण को सतर्क कर दिया कि केवल बुद्धि से ही रखवाली नहीं करनी है, बल्कि विवेक का भी इस्तेमाल करना होगा। जरूरत पड़ने पर शक्ति का भी इस्तेमाल करना। शक्ति का इस्तेमाल समय के अनुरूप होना चाहिए न कि हर समय। बुद्धि, विवेक, बल और समय; इन चारों के सामंजस्य से ही किसी भी कार्य को सही तरीके से पूरा किया जा सकता है। केवल एक ही पर्याप्त नहीं होता।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।