“मैंने अपने पिता को अपनी कमाई से होंडा की सिविक कार खरीदकर दी, पर वे आज भी लोकल बस और ट्रेन से ही सफर करते हैं । मैं भी अपने जिम में अक्सर ऑटो-रिक्शा से ही जाता हूँ । जीवन में सफलता और पैसा मिल जाने का मतलब यह तो नहीं की हम अपनी जिंदगी को जीने का अंदाज ही बदल दें ।” इन विचारों पर जरा गौर करें और अंदाजा लगाने की कोशिश करें की यह कथन किसका हो सकता है।
क्या आपने सोचा? क्या आप इस नाम के करीब पहुँच सके? नहीं न । तो आइये अब मैं ही बता देता हूँ । यह कथन युवा पीढ़ी के आज के आइकन, मॉडल और फिल्म अभिनेता जॉन अब्राहम का है । इस बात को भी बहुत कम ही लोग जानते हैं की जॉन न केवल एम.बी.ए. हैं, बल्कि अपनी यूनिवर्सिटी के टॉपर भी रहे हैं ।
खैर, मैं यहाँ जिस ओर अपने प्रिय पाठकों का ध्यान दिलाना चाह रहा हूँ, वह यह है की आखिर वह ऐसी कौनसी बात है कि जिस चकाचौन्ध और ग्लैमर के पीछे हम सभी भागते हैं, उसी के बीच रहने वाले कई लोग अपने लाइफ के जरिये एक अलग तरह की मिसाल दुनिया के सामने रखते हैं ।
हमारे देश में अक्सर “दो वक्त की रोटी, दो जोड़ी कपड़ा और एक छत” की बात हम सुनते आ रहे हैं । लोग इस आदर्श वाक्य को या तो विकास का विरोधी समझते हैं या फिर इसे ही ब्रह्म वाक्य मानकर अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मान बैठते हैं । इस वाक्य का सही अर्थ समझने के लिए शायद अंग्रेजी की यह कहावत पहले समझनी होगी कि “सिंपल लिविंग, हाई थिंकिंग”। मैं क्या कहना चाह रहा हूँ, शायद अब आप समझ गए होंगे। आपको जानकार आश्चर्य होगा की फिल्म स्टार सलमान खान केवल एक कमरे के फ्लैट में रहते हैं और नारायण मूर्ति शुरुआत से आज तक केवल इकोनोमी क्लास में सफर करते हैं, जिसे कुछ लोग ‘कैटल क्लास’ कहने में शान का अनुभव करते हैं । इसी तरह के और भी न जाने कितने ऐसे उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं । यहाँ सोचने की बात यह है कि क्या ये लोग महान होते हैं, इसलिए ऐसे रहते हैं या कि यह कि ये ऐसे ही रहते हैं, इसलिए महान बन जाते हैं? मेरा तो मानना यही है की व्यक्ति को अपने जीवन में एक स्तर के बाद अपने व्यक्तिगत विकास (सेल्फ ग्रोथ) के लिए काम करना चाहिए । शायद इसी विचार ने सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया था ।
क्या भौतिक जगत में संतोष और निजी विकास के लिए असंतोष की भावना ही सफलता का परफेक्ट फॉर्मूला है? सोचियेगा जरूर ।
नोट- यह लेख सबसे पहले राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है