Dr. Vijay Agrawal

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राम में प्रेम की प्रेरणा

राम के लिए सीता के प्रति प्रेम का भाव किस तरह से प्रेरणा का काम करता है, इस बारे में हमें एक अत्यंत रोचक और रोमांचक प्रसंग मिलता है। इससे पहले कि राम धनुष के पास पहुँचें, राम ने सीता की ओर देखा। फिर धनुष की ओर देखा। पहले सीता फिर धनुष, न कि पहले धनुष और फिर सीता। यह करके उन्होंने सीता के पास संदेश भेज दिया कि प्रथम तो तुम हो, उद्देश्य तो तुम हो। धनुष तो केवल तुम तक पहुँचने का माध्यम भर है। यदि तुम नहीं, तो धनुष मेरे किस काम का। तो पहले सीताजी को निहारकर उन्होंने अपने प्रेम के प्रवाह के स्रोत को खोला।

अब राम धनुष के निकट पहुँच गए हैं। एक सगचे वीर एवं शिष्ट राजकुमार के रूप में उन्होंने वहाँ उपस्थित सभा को विलोका और बस इसी बिलोकने में उन्हें फिर से सीता को ‘चितई’ करने का, देखने का अवसर मिल गया। स्वयंवर  स्थल पर पहली बार राम ने सीता को ताका था। यह आँख का काम था। दूसरी बार उन्होंने ताका नहीं, बल्कि ‘चितई’ किया। यह चेतना के द्वारा, चित्त के द्वारा किया जाने वाला कर्म है। यहाँ तक आते-आते आँखों से होती हुई सीता चित्त तक पहुँच गईं। अब वक्त आ गया है कि राम धनुष को उठाकर उसके दो टुकडे कर दें। यह अंतिम क्षण उस महन्त्तर कार्य को संपन्न करने का क्षण है। राम तनाव में नहीं हैं। वे अपना संतुलन साधे हुए हैं। इसलिए, इससे पहले कि वे फुर्ती के साथ धनुष को उठाकर उसका संधान करके उसका भंजन कर दें, राम ने एक बार फिर सीता की ओर देखा। यह तीसरी बार था, जब कुछ ही देर के अंतराल में उन्होंने सीता को देखा और वह भी भरी हुई एक ऐसी सभा में, जहाँ सीता के पिता राजा जनक, माँ सुनयना, गुरु विश्वामित्र, भाई लक्ष्मण तथा और भी न जाने कहाँ-कहाँ के राजा मौजूद थे। क्या यह हद नहीं हो गई?

नहीं, यह हद नहीं है, बशर्ते कि हम राम के इस कार्य को एक बँधे-बँधाए सामाजिक फ्रेम में न देखकर ब्रह्माण्ड के, ऊर्जा के एक विशाल फ्रेम में देखें। राम को सफल होना था। उन्हें सीता को पाना ही था और उनके पास ब्रह्माण्ड का यह संदेश था कि ‘सीता तुम्हें पाना चाहती हैं।’ किन्तु सीता विवश थीं। उनके हाथ में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे करके वे राम को पा सकती थीं। उनके पास केवल एक ही बात थी, वह थी राम को पाने की इच्छा और एक ही शक्ति थी, जो थी उस इच्छा की विशुद्धता, उस इच्छा की पवित्रता, उस इच्छा की गहराई। अन्यथा तो वे परवश थीं, दूसरों के वश में थीं। तो यहाँ   जो कुछ भी थे, वे राम ही थे और उन्हें ही सब कुछ करना था।

तो जब आपको ही सब कुछ करना है और इस तरह करना है कि उद्देश्य को पूरा होना ही होना है, तब आप उनमें से कुछ को न करने का जोखिम मोल ले ही नहीं सकते। राम ने भी नहीं लिया। लोगों को जो कहना हो, कहते रहें, लेकिन फिलहाल तो उन्हें प्रेरणा की शक्ति चाहिए थी, जो केवल सीता से ही मिल सकती थी। फिर किसी की परवाह कैसी। इसलिए पहले तो ताका, फिर चितई किया और अंत में, धनुष तोडने से ठीक पहले गुरु को मन ही मन प्रणाम किया और गुरु को मन ही मन प्रणाम करने के ठीक पहले सीता को ‘देखा’। अब उन्होंने खुलकर देखा, क्योंकि ऊर्जा के विस्फोट का क्षण आ पहुँचा था। अब आँख नहीं, अब केवल चेतना भी नहीं। अब तो जो कुछ भी करना है, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ करना है। राम ने यही किया और यह करने का परिणाम यह हुआ कि ‘तेहि छन राम मध्य धनु तोरा।’ उसी क्षण राम ने धनुष को बीचोंबीच से तोड दिया और इस प्रकार ब्रह्माण्ड के आदेश के पालन का कार्य समपन्न हो गया।

ब्लॉग में प्रस्तुत अंश  डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।

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