जब विश्वामित्र् आकर दशरथ से राम और लक्ष्मण को माँगते हैं, तो पिता के कहने पर राम चल देते हैं। यह भविष्य् के चौदह वर्ष के वनवास की उनकी एक प्रकार से पूर्व- तैयारी थी, उसका पूर्वाभ्यास था। ठीक है। पिता ने कहा। राम ने इसके खिलाफ कुछ नहीं कहा। पिता की आज्ञा मानी और चुपचाप चल दिए। लेकिन बाद में वे चौदह वर्ष के लिए वनवास क्यों गए? क्या पिता ने इसके लिए भी राम से कहा था? नहीं। पिता ने कहा ही नहीं था। यकीन न हो तो आप ‘रामचरितमानस’ उठाकर पढ लीजिए। कैकेयी ने दो वरदान माँगे थे। भरत को राजगद्दी वाला पहला वरदान तो दशरथ ने तुरंत ही दे दिया था। उन्होंने हामी भर दी थी, लेकिन दूसरे के लिए तो उन्होंने ‘हाँ’ कभी की ही नहीं, न तो कैकेयी के सामने और न ही राम के सामने। अंत तक, राम के वन जाने तक वे कैकेयी के ही सामने नहीं, बल्कि राम तक के सामने गिडगिडाते रहे कि राम वन न जाएँ। इतना ही नहीं, बल्कि राम के वन चले जाने के बाद वे अपने मंत्री सुमन्त से कहते हैं कि “तुम जाओ और राम सहित सबको वापस ले आओ और यदि राम न ही आएँ, तो कम से कम किसी तरह सीता को तो लौटा ही लाना।” आप जानते हैं कि सुमंत अपने इस अभियान में सफल नहीं हो सके थे।
यहाँ राम के निर्णय की जाँच-परख करने के लिए नैतिकवादी कसौटी की बजाय वैधानिक कसौटी का सहारा लेना अधिक न्यायपूर्ण होगा, क्योंकि राम के वन गमन की घटना एक शासक के द्वारा एक राजकुमार को दिए गए आदेश से जुडी हुई है, न कि एक राजा के द्वारा एक पुत्र को दिए गए आदेश से। तो बात यहाँ एकदम साफ है कि जब राजा ने वन गमन के आदेश पर हस्ताक्षर ही नहीं किये, तो फिर उस आदेश का पालन करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। लेकिन यहाँ राम ने उसे आदेश मान लि या, जबकि वह था नहीं। तो प्रश्न यह है कि उन्होंने ऐसा किया क्यों? पिता के आदेश पर विश्वामित्र के साथ चले गए और आदेश के बिना ही, यहाँ तक कि रोके जाने के बावजूद उसकी अवहेलना करके वन को चले गए, वह भी दशरथ से पूछे बिना ही। साथ में लक्ष्मण और सीता को लेकर अलग।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।