Dr. Vijay Agrawal

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भ्रष्टाचार पर समुद्र मंथन की जरूरत

भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले तथाकथित दो जन आन्दोलन खत्म हो गये हैं। आन्दोलन के दौरान बेहद उत्तेजित एवं उल्लसित जनभावनायें आज उतनी उत्तेजित दिखाई नहीं दे रही हैं। फिलहाल इस मुद्दे को लेकर कुछ प्रश्न दिमाग में कुलबुला रहे हैं, जिनके उत्तर मिलने ही चाहिए।

अन्ना हजारे स्वयं में एक विश्वसनीय व्यक्तित्व एवं अत्यंत सक्रिय एक्टिविस्ट हैं। उनके पास आन्दोलनों का एक लम्बा अनुभव है। लोग यह जानना चाहते हैं कि कैसे एक अनुभवी आंदोलनकारी नायक ने भ्रष्टाचार जैसे गहरे, क्रॉनिक एवं राष्ट्रव्यापी जहर का इलाज मात्र लोकपाल विधेयक के सपेरे के पास देख लिया। यदि आज लोकपाल बिल को ज्यों का त्यों उनके अनुसार ही पारित कर दिया जाये, तो क्या भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा? यदि ऐसा है भी, तो क्या उनके और उनके सलाहकारों के पास सत्ता के मूल चरित्र का यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं है कि सत्ता चाहे किसी की भी क्यों न हो, यहाँ तक कि उनकी भी, जो अभी आंदोलनरत हैं, उसका मूल उद्देश्य स्वयं के अस्तित्व को बचाये और बनाये रखना होता है, न कि किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए खुद की बलि चढ़ा देना। अब लगभग वही होने वाला है।

मैं हाल ही में कनाडा और अमेरीका की तीन महिने की यात्रा से लौटा हूँ। वहाँ जहाँ भी मैं गया, जिनसे भी मिला, हर एक मुझसे भारत की नसों में व्याप्त हो गये इस भ्रष्टाचार के बारे में पूछता था। अब उनकी चिन्ता न तो भारत-पाकिस्तान संबंध हैं, न साम्प्रदायिकता है, न ही आर्थिक विकास की गति का आठ प्रतिशत से बढ़ना है। उनकी मूल चिन्ता भ्रष्टाचार की है। मुझे इसका कारण यह लगा कि वे सब अपने देश के लिए कुछ करना चाहते हैं- डोनेशन के रूप में, इन्वेस्टमेंट के रूप में और यहाँ तक कि हमेशा-हमेशा के लिए अपने देश वापस लौटकर भी। लेकिन भ्रष्टाचार के दानव नृत्य को देखकर उनकी हिम्मत टूट जाती है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार विरोधी यह आन्दोलन उन्हें एक सिल्वर लाईन की तरह दिखाई दे रहा है।

फिर भी ऐसा लगता है कि बहुत बुरा दौर होने के बावजूद यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण और संक्रमणकालीन दौर भी है, जब सचमुच में भारत भ्रष्टाचार पर गंभीर मंथन करके इस समस्या का स्थायी समाधान निकाल सकता है। वस्तुतः जब हम भ्रष्टाचार को केवल एक राजनीतिक या प्रशासनिक मुद्दा मानकर चलते हैं, तो यह एक प्रकार से आइसबर्ग के सम्पूर्ण स्वरूप की अनदेखी करने जैसा ही है। जब तक हम इस समस्या को एक राजनीतिक और प्रशासनिक समस्या से ऊपर उठकर इसे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और यहाँ तक कि वैधानिक समस्या से जोड़कर नहीं देखेंगे, तब तक इसका कोई भी स्थायी समाधान निकाल पाना सम्भव नहीं होगा। इसलिए बहुत जरूरी है कि हमारे देश में जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नेतृत्त्व कर रहा हो, उसके पास एक व्यापक सम्पूर्ण दृष्टि और दूरदर्शिता हो। शायद इसीलिए प्लेटो ने “दार्शनिक राजा” की बात कही थी। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का यह आन्दोलन, आन्दोलन अवश्य था, लेकिन उनमें व्यावहारिकता, सम्पूर्णता और दूरदर्शिता का नितान्त अभाव था। मुझे लगता है कि इस विषय पर बातचीत करने के दौरान कुछ अन्य मुद्दों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

भारत जैसे विकासशील देश के सन्दर्भ में यह बात बहुत अधिक मायने रखती है कि इतनी अधिक आर्थिक असमानता वाले देश में भ्रष्टाचार की उपस्थिति कितनी स्वाभाविक है, कितनी कृत्रिम। जब मैं आर्थिक असमानता की बात कर रहा हूँ, तो उसमें ‘‘खा-खाकर मरने वालों से लेकर बिना खाये ही मर जाने वालों” तक की रेंज शामिल है। किसी भी समाज में पूर्ण आर्थिक समानता सम्भव नही है। लेकिन क्या कोई भी सभ्य समाज और विशेषकर लोकतांत्रिक देश स्वयं को इस दायित्व से मुक्त कर सकता है कि उसके किसी भी नागरिक की मौत सिर्फ इसलिए हो जाये, क्योंकि उसके पास पेट में डालने के लिए रोटी के दो कौर नहीं थे?

सामन्तीय व्यवस्था को समाप्त करके लोकतांत्रिक व्यवस्था को लागू किये हुए चौसठ साल हो गये हैं। भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में इस तथ्य का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि क्या एक प्रणाली को समाप्त कर देने से उसके मूलभूत तत्व भी समाप्त हो गये हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सामन्तीय व्यवस्था के वे सारे तत्व, जो मूलतः शोषण, श्रम की अवहेलना, विलासिता तथा सामाजिक गठबन्धन पर आधारित होते हैं, अपना चोला बदलकर हमारी चेतना में अभी भी मौजूद हैं। इसका मूल्यांकन राजनीति, नौकरशाही और आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग के सन्दर्भ में विशेष रूप से किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि कोई भी सामन्तीय व्यवस्था निहायत ही निजी हितों और निजी नियमों पर आधारित होती है और जहाँ भी ऐसा होगा, वहाँ सार्वजनिक हित और सार्वजनिक विधि-विधान तिरस्कृत हो जाते हैं।

एक अन्य महत्वपूर्ण इस तथ्य पर एक बातचीत होनी ही चाहिए कि क्या सचमुच में आर्थिक भ्रष्टाचार चाहे वह निहायत ही निम्न स्तर की ही क्यों न हो, मसलन किसी क्लर्क के द्वारा एक महत्वहीन फाईल निपटाने के एवज में लिया जाने वाला पचास रूपए का एक नोट। क्या ऐसा करना उसके लिए आवश्यक है? यदि आवश्यक है, तो क्यों? जाहिर है यदि यह आवश्यक है, तो इस आवश्यकता के कारणों को दूर किये बिना उसको सीधे-सीधे भ्रष्ट ठहरा देना भी शायद उसके प्रति उसी तरह अन्याय करना होगा, जैसे भूख से बिलबिलाते हुए एक बच्चे के द्वारा चुपके से रोटी का एक टुकड़ा उठाकर खा लेना। यदि उसके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं है, फिर भी वह ऐसा कर रहा है, तो फिर हमें इसके सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की तलाश करनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि भविष्य के लिए हम एक ऐसे समाज की रचना में जुटे हुए हैं, जहाँ साधनों की पवित्रता खत्म हो रही है और साध्य ही सब कुछ बन बैठा है। और यह साध्य भी धन इकट्टा करना है। यदि सचमुच में किसी भी समाज में अर्थशक्ति सर्वोत्तम उपलब्धि और सर्वोत्तम योग्यता का मापदण्ड बन जाती है, तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाये गये मजबूत से मजबूत और धारदार हथियार कुछ समय बाद भोथरे पड़ते नजर आने लगेंगे। दुर्भाग्यवश यह किसी भी समाज का एक गैर आनुपातिक विकास होगा और जहाँ भी अनुपात नहीं होगा, वहाँ विकृतता ही नजर आयेगी, फिर चाहे चेहरे-मोहरे कितने भी सुन्दर क्यों न हों।

यहाँ इस एक तर्क पर भी विचार किया जाना चाहिए कि “अमेरिका और जापान जैसे धनी एवं विकसित देषों में भी तो भ्रष्टाचार है।”यह तर्क अर्थहीन नहीं है। यहाँ सबसे बड़ी बात यह है कि इन देषों में भ्रष्टाचार का स्वरूप ‘डाल-डाल और पात-पात’का नहीं है कि ‘जहाँ भी देखो, वहीं यह मौजूद’है। वहाँ की हवा इतनी विषैली नहीं हुई है कि छोटे से छोटे आदमी को एक छोटी सी साँस लेना भी दूभर हो जाये। वहाँ जो यह स्थिति है, उनके कारणों को भी अच्छी तरह समझा जाना चाहिए, बजाय इसके कि हम इस तर्क का इस्तेमाल अपने बचाव के लिए ढाल की तरह करें।

नोट- यह लेख सबसे पहले दैनिक-जागरण के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुका है

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