इंडियन सिविल सर्विसेस यानि कि भारतीय प्रशासन की रीढ़ की हड्डी, जिसके जरिए न केवल जिला स्तर पर प्रशासन को सम्हालने वाले आय.ए.एस. और आय.पी.एस. अफसरों की ही भर्ती होती है बल्कि राजस्व, रेल्वे, लेखा तथा सूचना जैसे अनेक विभागों के लिये भी सर्वोच्च स्तर पर भर्ती की जाती हैं। यही वे अधिकारी होते हैं, जो शुरू से लेकर अंत तक अपने विभागों को नियंत्रित करते हैं और यदि इंजीनियरिंग, वन तथा मेडीकल जैसी कुछ तकनीकी सेवाओं को छोड़ दिया जाये, तो सिविल सर्विसेस के जरिये भर्ती किये जाने वाले अधिकारियों का दबदबा शेष सभी सेवाओं पर रहता है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सिविल सेवाओं से जो आय.ए.एस. बने हैं, उनके नियंत्रण से तो तकनीकी तथा विशेषज्ञ सेवाएँ भी नहीं बची हैं। हाँलाकि सरकारी सेवाओं में भर्ती अन्य कई से चैनल्स हैं, जिनमें राज्य सरकारों के भी लोक सेवा आयोग आते हैं, किन्तु सर्वोच्च स्तर पर एवं सम्पूर्णता के साथ जिस सेवा के जरिए भर्ती की जाती है, वह सिविल सर्विसेस ही है-विभागों की दृष्टि से, प्रतिभा की दृष्टि से तथा यहाँ तक कि अखिल भारतीयता के दृष्टिकोण से भी। तकनीकी रूप से तो इसके जरिए भर्ती की जाने वाली सभी सेवाओं को अखिल भारतीय सेवाएँ नहीं कहा जाता है, किन्तु अपने चरित्र की दृष्टि से ये अखिल भारतीय ही होती हैं, क्योंकि इसके द्वारा भर्ती किये गये अधिकारी न केवल राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं से ही आते हैं। बल्कि उनकी नियुक्ति भी पूरे देश में कहीं भी की जा सकती है। यहाँ सिविल सर्विसेस की भर्ती के इस स्वरूप को बताना इसलिये जरूरी था, क्योंकि मैं जिस बात की चर्चा आगे करने जा रहा हूँ, उसे इस पृष्ठभूमि को जाने बिना ठीक से समझने में दिक्कत आ सकती है।
सिविल सर्विसेस की भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है, जिसे संविधान में एक स्वायत्त संस्था जैसा स्वरूप प्राप्त है ताकि वह बना किसी दबाव के, स्वतंत्रतापूर्वक, निष्पक्ष भाव से देष के सर्वोच्च पदों के लिए योग्य उम्मीद्वारों की भर्ती कर सके। उम्मीद्वार योग्य हों, इसके लिए जाहिर है कि बदलते हुए समय के साथ-साथ सिविल सर्विसेस की परीक्षा प्रणाली में भी बदलाव लाने के लिए अनेक समितियों का गठन किया गया। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण समिति रही-डी.एस.कोठारी समिति, जिसने सन् 1976 में अपनी रिपोर्ट दी थी। यह रिपोर्ट इस मायने में एक क्रान्तिकारी रिपोर्ट थी कि इसी के आधार पर मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में सन् 1979 इस परीक्षा के दरवाजे हिन्दी के साथ-साथ संविधान में शामिल अन्य सभी भारतीय भाषाओं के लिये खोल दियेे गये थे। जाहिर है कि इससे पहले यह सेवा हिन्दुस्तान के गिने-चुने केवल उन दो प्रतिशत लोगों के लिए आरक्षित थी, जो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे थे और अंग्रजी पढ़ने वाले ये लोग इलीट वर्ग के थे। इस प्रकार आजादी के तीस साल तक भारत की ही सिविल सेवाओं से भारतीयों को ही बाहर रखने का एक बहुत खुबसूरत षड़यंत्र चलता रहा। इस षड़यंत्र के पीछे तर्क यह दिया जाता रहा कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के आभाव में पर प्रशासन कर पाना सम्भव नहीं है। इस दृष्टि से तात्कालीन भारतीय जनता पार्टी की सरकार को बधाई दी जाना चाहिए कि उसने पहली बार हिन्दुस्तान की जुबान पर लगे ताले को तोड़कर उसे बोलने का मौका दिया।
पिछले तीस सालों से थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ मूलतः इसी मुख्य पैटर्न पर सिविल सेवाओं में भर्ती होती रही। जुलाई 2000 में संघ लोक सेवा आयोग ने डॉ. वाय.के.अलख की अध्यक्ष्ता में एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति का गठन कर उसे वर्तमान परीक्षा प्रणाली का जायजा लेने का दायित्त्व सौंपा। समिति ने अक्टूबर 2001 में अपनी रिपोर्ट संघ लोक सेवा आयोग को भेज दी और इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर पिछले साल सरकार ने प्रारंभिक परीक्षा में परिवर्तन की घोषणा कर दी। यानी कि इस साल से इस नई प्रणाली के आनुसार परीक्षाएँ होंगी। उल्लेखनीय है कि अभी भी परीक्षाओं की घोषणा प्रारंभिक परीक्षा के लिए ही की गई है, जबकि अलघ समिति ने मुख्य परीक्षा एवं साक्षात्कार में भी कुछ परिवर्तन करने की सिफारिश की थी। इस परीक्षा की तैयारी कर रहे विद्यार्थी फिलहाल अधर में हैं कि मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार का क्या होगा। जुलाई 2011 में तो मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार पहले जैसे ही होगें। लेकिन यह भी पक्का है कि बहुत जल्दी इसमें भी बदलाव होंगे। जैसे कि विश्वस्त सूत्रों से सूचनाएँ मिल रही हैं और स्वयं अलख कमेटी ने भी सिफारिशें की थी, संघ लोक सेवा आयोग से तो प्रश्न यह पूछा ही जाना चाहिए कि उसने परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन की सम्पूर्ण घोषणा क्यों नहीं की। यदि मुख्य परीक्षा में परिवर्तन नहीं किया जाना है, जैसे कि इस साल के लिए नहीं किया गया, तो उसे इस बारे में भी बहुत स्पष्ट रूप से घोषणा करनी थी ताकि इस परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थी अपने भविष्य की योजनाएँ अच्छी तरह बना सकते।
खैर, यह एक अच्छी बात है। लेकिन जो सबसे बड़ी चिन्तनीय बात है, वह है इस बार की प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप की बात। प्रारंभिक परीक्षा में पहले दो पेपर होते थे, जिसमें एक पेपर सामान्य ज्ञान का होता था और दूसरे प्रश्न-पत्र के लिए एक वैकल्पिक विषय लेना पड़ता था। अब नई प्रणाली में वैकल्पिक विषय को खत्म करके उसकी जगह सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट नामक विषय डाल दिया गया है। ऐसा क्यों किया गया, इस बारे में संघ लोक सेवा आयोग के अपने तर्क हैं। पहला तर्क तो यही है कि वैकल्पिक विषय अलग-अलग होने से निष्पक्ष चयन में दिक्कत आ रही थी और इसके लिए जिस स्केलिंग पद्धति का सहारा लिया जा रहा था, सूचना के अधिकार के अन्तर्गत उसकी जानकारी मांगने पर उसने वह जानकारी उपलब्ध कराने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। इस प्रकार अब उसे झंझट से मुक्ति मिल जायेगी। उसका दूसरा तर्क यह है कि संघ लोक सेवा आयोग अब देष की बदलती परिस्थितियों के अनुकुल इसके जरिए अब सही उम्मीद्वार का चयन कर सकेगा। आईये, अब देखते हैं कि संघ लोक सेवा आयोग ने जो यह कहा है, वह किस तरह भविष्य के खतरनाक प्रशासनिक स्वरूप की ओर संकेत कर रहा है।
पहली बात तो यह कि यह कहना गलत नहीं होगा कि संघ लोक सेवा आयोग मोतियाबिंद का शिकार हो गया है। यदि वह अपने पहले के सामान्य ज्ञान के प्रश्न-पत्र को देखे, तो उसमें स्पष्ट रूप से ‘मेंटल एबीलिटी’ (मानसिक क्षमता) विषय को शामिल किया हुआ है, जिसके लिए अब उसका अलग से एक स्वतंत्र प्रश्न-पत्र गढ़ लिया गया है। यदि हम पिछले पाँच सालों के इस पेपर का विश्लेषण करें, तो साफ तौर पर दिखाई देता है कि उसमें सबसे ज्यादा जोर भूगोल और राजनीति शास्त्र के विषयों पर है। यही कारण रहा कि वैकल्पिक विषय के रूप में ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थी इन दोनों ही विषयों को लेने लगे। यदि इसमें सम-सामयिक ज्ञान को शामिल कर लिया जाये, तो साठ प्रतिशत प्रश्न केवल इन तीनों से ही आये हैं। विज्ञान से 5-8 प्रतिशत, इतिहास से 10-12 प्रतिशत तथा मेंटल एबीलिटी से 5-7 प्रतिशत प्रश्न पूछे जाते हैं। सामान्य ज्ञान के पेपर का यह स्वरूप अपने-आपमें ही बेहद असंतुलित था। यदि संघ लोक सेवा आयोग चाहे तो इसी पेपर में मानसिक क्षमता के प्रश्नों का सही प्रतिनिधित्त्व कराकर उसे ठीक कर सकता था। खैर, इसके लिए उसने अब एक भ्रमात्मक मुहावरा गढ़ लिया है। उस के लिए ज्ञान की एकमात्र कसौटी फिलहाल वही है, जो आय.आय.एम. के ‘कैट’ में होता है। उसने ‘कैट’ की जगह ‘सेट’ की घोषणा कर दी है।
इस द्वितीय प्रश्न-पत्र में मुख्य परीक्षा के सात बिन्दु हैं, जिनमें से तीन बिन्दु मुख्य रूप से गौर किये जाने लायक हैं। ये तीन बिन्दु हैं-अपठित गद्यांश (काम्प्रीहेंशन), मूलभूत अंकीय योग्यता, (बेसिक न्यूमेरीक) तथा इंग्लिश लैंग्वेज काम्पीहेंशन स्कील्स। अब शुरूआत करते हैं इंग्लिश लैंग्वेज काम्प्रीहेंशन स्कील्स से।
अभी तक अंग्रेजी का एक पेपर केवल मुख्य परीक्षा में होता था और उसे केवल पास करना पड़ता था। चूँकि इसके स्कोर मार्कशीट में नहीं जुड़ते थे, इसलिए अंतिम चयन पर उसका प्रभाव शून्य था, लेकिन अब अंग्रेजी का ज्ञान निर्णायक बन गया है। इस पूरे पेपर में यदि सौ प्रश्न पूछे जाते हैं, तो यह मान लेना गलत नहीं होगा कि चौदह प्रश्न अंग्रेजी भाषा के ज्ञान पर पूछे जायेंगे। उल्लेखनीय है कि प्रारंभिक परीक्षा में औसतन लगभग चार लाख विद्यार्थी बैठते हैं। आप सोच सकते हैं कि जहाँ एक-एक नम्बर विद्यार्थी की सफलता को प्रभावित करता हो, वहाँ यदि विद्यार्थी चौदह प्रश्न हल नहीं कर पाये, तो उसे भगवान भी सफल नहीं कर सकता। सिलेबस में भले ही इसे दसवीं कक्षा के स्तर का ही बताया गया है, लेकिन जब तक अंग्रेजी पर विद्यार्थी की अच्छी पकड़ नहीं होगी? तब तक इन प्रश्नों को हल कर पाना किसी के लिए सम्भव ही नहीं होगा, क्योंकि इन प्रश्नों की प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है। इसका मतलब यह हुआ कि परीक्षा के पहले ही में हिन्दीभाषी क्षेत्र का वह विद्यार्थी, जिसने अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई नहीं की है, अपने आप ही दौड़ से बाहर हो जायेगा। यहाँ तक कि गाँवों और छोटे शहरों के वे विद्यार्थी भी इसमें सफल होने का सपना नहीं देख सकते, जिन्हें अंग्रेजी का बहुत अच्छा माहौल नहीं मिला हो। इस प्रकार संघ लोक सेवा आयोग ने बड़ी खूबसूरती के साथ एक षड़यंत्र के जरिए लार्ड मैकाले को फिर से जीवित करके भारतीय सिविल सेवा में सन् 1979 के पूर्व की स्थिति लाकर इसे इंडिया के दो प्रतिशत इलीट लोगों के लिए आरक्षित कर दिया है। यह मात्र आशंका नहीं है, बल्कि शीशे की तरह साफ दिखाई देने वाला चमकदार यथार्थ है, जिसके बारे में तनिक भी सन्देह की गुंजाइश है ही नहीं।
यहाँ डॉ. वाय.के. अलघ से और वर्तमान में संघ लोक सेवा आयोग के चेयरमेन तथा अन्य माननीय सदस्यों से यह स्पष्ट रूप से पूछा जाना चाहिए कि आखिर वे भारत के किस प्रशासन की बात करते हैं, जिसके लिए अंग्रेजी के ज्ञान का होना वे इतना जरूरी मानते हैं। सन् 1979 के बाद से अब तक तीस साल तक भारतीय भाषाओं के जानकार प्रशासन में आते रहे है। सफल विद्यार्थियों के आँकड़े बताते है कि लगभग पचास प्रतिशत लोग हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से इस सेवा में आये हैं। इनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण रही है, मध्यमवर्गीय एवं निम्न मध्यमवर्गीय रही है तथा देषीय रही है। ये लोग न केवल ग्रास रूट से जुड़े हुए लोग हैं, बल्कि इनके पास समस्याओं की सीधी समझ और उसके निराकरण करने का भावनात्मक आवेग भी है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इन लोगों के आने से इंडियन सिविल सर्विस का चरित्र सही मायने में भारतीय नागरिक सेवा के चरित्र के रूप में रूपान्तरित हुआ है। ये लोग जनता के साथ सीधे मिलने में अपना अपमान नहीं समझते। ये लोगों से लोगों की भाषा में बात करके उनके मन में प्रशासन के प्रति एक विश्वास पैदा करते हैं। अंग्रेजों के सूट-बूट और टाई की जकड़न से स्वयं को मुक्त करके इन्होंने उन्हें अपने को उस स्वरूप में प्रस्तुत किया है, ताकि यहाँ के लोग इनके साथ तादात्म्य महसूस कर सकें। इनका चरित्र ही सही मायने में किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के चरित्र के अनुकुल है।
अब अंग्रेजी भाषा की जानकारी प्रशासनिक व्यवस्था से ऐसे लोगों को हमेशा-हमेशा से खारिज कर देगी। यह एक बहुत थोथा, बहुत हल्का और यहाँ तक कि निहायत ही घटिया और झूठा तर्क है कि प्रशासन के लिए अंग्रेजी का कार्यसाधक ज्ञान होना जरूरी है। मैं स्वयं 1983 बैच से हूँ और मैंने हिन्दी माध्यम से यह परीक्षा पास की थी। अपने सोलह साल के दिल्ली प्रवास के दौरान नौ साल मैंने उप राष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति डॉ.शंकरदयाल शर्मा के साथ काम करने में बिताये हैं। शेष समय अन्य विभागों में। उच्च स्तरीय मीटिंग्स भी अटेंट की है और विश्व के पन्द्रह देशों के दौरे भी किये है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं शिक्षाविद् एवं अर्थशास्त्री श्री वाय.के. अलघ तथा संघ लोक सेवा आयोग के वर्तमान चेयरमेन श्री अग्रवाल जी को कैसे विश्वास दिलाऊँ कि हिन्दी माध्यम का होने के बावजूद मुझे काम करने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आई। हाँ, अंग्रेजीदां लोगों को जरूर मुझसे दिक्कत महसूस होती थी। वह इसलिए नहीं कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती थी, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें हिन्दी नहीं आती थी।
मैं यहाँ हमारे देश के उन नीति निर्माताओं को प्रशासनिक चिन्तक फ्रेडरिक रिग्स के विचारों की याद दिलाना चाहूँगा जो भारतीय प्रशासन के भविष्य के कर्णधार बनने का दंभ भरते हैं। फ्रेडरिक रिग्स ने फिलीफिन्स और ताइवान की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का बहुत गंभीरता से अध्ययन करने के बाद अपना यह निष्कर्ष दिया था कि विकसित देशों की प्रशासनिक प्रणाली कभी भी विकासशील देशों पर लागू नहीं की जा सकती। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रत्येक देश के संगठन की संरचना वहाँ के अपने पर्यावरण की देन होती है और वहाँ की व्यवस्था ठीक से चल सके, इसके लिए बहुत जरूरी है कि प्रशासनिक प्रणाली का तालमेल वहाँ की सामाजिक संरचनाओं के साथ बैठे। सन् 1979 में सिविल सेवा की भर्ती प्रणाली में जिन परिवर्तनों की घोषणा की गई थी, वह फ्रेडरिक रिग्स के इन सिद्धान्तें के ही अनुकुल थी। वर्तमान घोषणा एक ऐसी प्रक्रियावादी घोषणा है, जो हमें फिर से अंग्रेजों की प्रशासनिक युग में ले जायेंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है।
अब थोड़ी-सी कुछ बातें और। द्वितीय प्रश्न-पत्र में गणित तथा सामान्य मानसिक क्षमता का परीक्षण होगा। सामान्य मानसिक क्षमता का सम्बन्ध भी गणित के ज्ञान से ही है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हमारे देश में जो बहुत सारे स्कूल हैं, खासकर गाँव के स्कूल, एक तो वहाँ शिक्षक ही नहीं होते और यदि होते भी हैं, तो गणित के शिक्षकों की तो वैसे ही बहुत कमी रहती है। यदि गणित का योग्य शिक्षा ढूढने लगें, तब तो निराशा और भी ज्यादा बढ़ जायेगी। इस अनुभव की भी किसी शिक्षाविद् के पास कमी नहीं होगी कि बहुत सारे विद्यार्थी विज्ञान और वाणिज्य के विषय इसलिए नहीं लेते, क्योंकि गणित में उनकी रूचि नहीं होती है। सी.बी.एस.सी और विभिन्न राज्यों के बोर्डों के परीक्षा परिणाम बताते हैं कि फेल होने वाले सबसे अधिक विद्यार्थी या तो गणित के होते हैं या फिर अंग्रेजी के, यदि अंग्रेजी अनिवार्य हो तो। वैसे भी बहुत से राज्यों में अंग्रेजी एक वैकल्पिक विषय के रूप में है। जो विद्यार्थी अंग्रेजी नहीं लेगा, जाहिर है कि वह सिविल सर्विस में सफल नहीं हो पायेगा, फिर चाहे वह लाख कोशिश क्यों न कर ले। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग अपने आप ही बिना किसी जायज कारण के सिविल सेवा के अयोग्य घोषित कर दिया गया है।
अब एक अंतिम बात। अभी जनवरी में कैट के परीक्षा परिणाम घोषित हुए हैं, जो पूरी तरह सिविल सेवा परीक्षा के द्वितीय प्रश्न-पत्र के पेटर्न पर आधारित परीक्षा है। इस परीक्षा के शुरू के दस विद्यार्थियों में से सात विद्यार्थी इंजीनियरिंग के हैं। जाहिर है कि भविष्य की सिविल सेवा अब इंजीनियरों से भरी हुई सिविल सेवा होगी। इससे पहले कई बार यह प्रश्न उठाया गया था कि डॉक्टर और इंजीनियर्स को सिविल सेवा परीक्षा में बैठने से रोका जाना चाहिए, क्योंकि वे विशेषज्ञ होते हैं, जबकि सिविल सेवा सामान्यज्ञ होती है। उनके तकनीकी ज्ञान की यहाँ कोई जरूरत नहीं होती। यदि कभी जरूरत हुई भी, तो उन्हें सलाहकार के तौर पर लेने की सुविधा प्रशासन के पास मौजूद रहती है। डॉक्टर और इंजीनियर्स का सिविल सेवा में आना एक प्रकार से राष्ट्रीय संसाधनों का दुरूपयोग किया जाना है। संघ लोक सेवा आयोग की अभी की घोषणा इस तर्क के भी बिल्कुल विपरीत बैठती है। ऐसा लगता है मानो कि अंग्रेजी न जानने वाले, गाँवों में रहने वाले, मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के प्रति बेहद दुर्भावना से प्रेरित होकर इस नई पद्धति की घोषणा की गई है। मेरा अनुरोध है संघ लोक सेवा आयोग से भी और सरकार से भी और यहाँ तक हमारे देश के सभी सांसदों से भी कि इस मामले पर पूरी संवेदनशीलता के साथ विचार करें। हिन्दुस्तान के प्रशासन से हिन्दुस्तान को ही हमेशा-हमेशा के लिए बेदखल कर दिये जाने से बचाएँ। इसके लिए आने वाला भविष्य आप सबका बहुत आभारी रहेगा। साथ ही भविष्य की पीढ़ियाँ भी। क्या सचमुच में कोई मेरे इस दर्दनाक आवाज को सुनकर हिन्दुस्तान की ओर से आवाज उठायेगा?