Dr. Vijay Agrawal

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धार्मिक पुनरीक्षण के दौर में दुनिया

13-decबीसवीं शताब्दी के उत्तराद्र्व के अंतिम चैथाई भाग से लेकर इक्कीसवीं शतब्दी के आज तक की विशेषकर सूचना क्रांति, जैविकीय क्षेत्र के अनुसंधानों तथा इनके दबावों से उत्पन्न आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव केवल बाजार पर ही नहीं पड़ा है, बल्कि उसने व्यक्ति की मूलभूत चेतना से लेकर सदियों तक जड़ जमाई हुई उसकी अत्यंत गहरी एवं बुनियादी धार्मिक अवधारणाओं तक को उलट दिया है। इस तथ्य का सबसे जीवंत सशक्त प्रमाण है- ‘इसाई जगत के सर्वोपरि धर्मगुरू पोप फ्रांसिस का नवम्बर महिने में कैथोलिक धार्मिक-केन्द्र वेटिकन में आयोजित आकादमी आॅफ साइंस में दिया गया भाषाण। बेहतर होगा कि हम उसे भाषण या उद्बोधन न कहकर प्रवचन ही कहें। अपने इस प्रवचन में पोप फ्रांसिस ने सृष्टि के निर्णाण के संबंध में वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित बिग बैंग (महाविस्फोट) के सिद्धांत तथा चाल्र्स डार्विन द्वारा प्रवर्तित विश्व में जीव की उत्पत्ति से संबंधित विकासवाद के सिद्धांतों के साथ अपने धार्मिक-ग्रंथ बाइबिल की अवधारणाओं का तालमेल बैठाने की स्पष्ट कोशिश की। उन्होंने साफ-साफ कहा कि यद्यपि विश्व का निर्माण ईश्वर ने ही किया है, और ये दोनों सिद्धांत ईश्वर के कार्यों के ही अंग हैं।
इसे बाइबिल की अवधारणाओं के विरोध में दिया गया वक्तव्य माना जा सकता है, बशर्ते कि हम उसकी अवधारणाओं की व्याख्या किसी रूपक, प्रतीक, मिथकीय अथवा कथन की अप्रत्यक्ष शैली के रूप में न करें। ज्ञातव्य है कि वर्तमान पोप फ्रांसिस के उपयुक्र्त कथन के करीब 485 साल पहले इसी रोम के धार्मिक न्यायालय ने गेलीलियो को उनकी मात्र इस स्थापना के लिए आजीवन नजरबन्द की सजा सुनाई थी कि दरअसल सूर्य स्थित है, और पृथ्वी उसके चारों ओर धूमती है। गेलीलियो को धर्मसभा के सामने घुटने टेककर यह कहने के लिए मजबूर किया गया था कि ‘‘पृथ्वी घूमती नहीं है, और इसलिए वह सौरमंडल के मध्य के स्थित है।’’ यह बात अलग है कि इस सर्वोच्च धार्मिक अदालत के आदेश को मानने से पृथ्वी ने इंकार कर दिया। वह आज तक घूम रही है।
देर आये दुरुस्त आये। पोप फ्रांसिस की वर्तमान धार्मिक अवधारणा को न तो किसी पराजित मानसिकता के रूप में लिया जाना चाहिए और न ही किसी प्रायश्चित के रूप में, बल्कि इसे डार्विन के ही विकासवाद के सिद्धांत के अनुरूप स्वीकार करके इसका पुरजोर स्वागत किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि सहस्त्राद्धियों से धार्मिक चेतना ही मुख्यतः मानव-जीवन के आंतरिक पक्ष का संचालन कर रही है। जबकि उसका भौतिक पक्ष प्रकृति द्वारा संचालित होता है। दुर्भाग्य से धर्म को प्रकृति से विलग कर देने का गम्भीर दुष्परिणाम मनुष्य अब तक भुगतता आ रहा है। जबकि धर्म स्वयं प्रकृति से ही उद्भूत इसका एक अभिन्न अंग है। यदि फिर से प्रकृति (विज्ञान) एवं धर्म में सामंजस्य स्थापित हो जाता है, तो यह इस धरती के लिए अब तक का सर्वाधिक क्रांतिकारी कदम होगा, जिसकी शुरुआत शायद हो चुकी है।
दरअसल, इस बारे में विश्व-पटल पर तीन बड़ी स्पष्ट किन्तु एक-दूसरे से भिन्न स्वरूप वाली धारायें प्रवाहमान दिखाई दे रही हैं। इनमें एक धारा क्रिश्चियनिटी की है, जिसके बारे में कुछ ही दिनों पहले ब्रिटेन के धर्मगुरुओं द्वारा चर्च में आने वाले श्रद्धालुओं की घटती हुई संख्या पर चिंता जताई गई थी। यह तथ्य बहुत चैंकाने वाला जान पड़ता है इसी चर्च ने आज से मात्र नौ साल पहले सन् 2006 में महाविस्फोट के सिद्धांत को नकारते हुए स्कूलों में इसे न पढ़ाये जाने की बात कही थी। तो क्या फिर इसे एक बार यूरोप के धार्मिक पुनर्जागरण के आगमन की दस्तक कहा जाए?
इसके ठीक दूसरे छोर पर मूल रूप से शांति एवं समर्पण का संदेश देने वाले इस्लाम की धारा दिखाई दे रही है। दुर्भाग्य से यह धारा कट्टरपंथियों के कब्जे में कुछ इस तरह आ गई है कि लोग आईएसआईएस, तालिबानियों, बोको, हराम तथा अलकायदा के मध्यकालीन गुलामी एवं बर्बरता वाले मूल्यों को ही इस्लाम का मूल संदेश मानने की गफलत में आते जा रहे हैं। इस्लाम के इन प्रतिगामी विचारों के विरुद्ध प्रबल प्रगतिवादी विचारों का कोई जत्था भी उभरता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। इस बारे में ब्रिटेनवासी पाकिस्तानी निर्देशक की फिल्म ‘खुदा के लिए’ अद्भूत है, और काबिल-ए-तारीफ भी। लग रहा है, मानो कि हैटिंग्टन की ‘सभ्यता के संघर्ष’ की भविष्यवाणी के सच होने की शुरुआत हो गई है। कुछ ही दिनों पहले लंदन में इस्लाम धर्म के समर्थकों द्वारा निकाला गया जुलूस इसी दिशा की ओर बढ़ते कदम की ओर संकेत करता है।
तीसरी धारा इन दोनों के बीच की धारा है, जो न केवल भारत में बहनी शुरु हुई है, बल्कि यह कनाडा, अमेरीका और आस्ट्रेलिया जैसे उन देशों में बहने लगी है, जहाँ भारतीयों की संख्या पर्याप्त है। यह एक प्रकार से ‘हिन्दू धर्म’ के पुनर्रीक्षण एवं पुनव्र्याख्या की धारा है। यहाँ संकट ईसाई धर्म की तरह भक्तों की कमी का नहीं हैं। बल्कि पिछले दो दशकों की सूचना क्रांति के फलस्वरूप आए ‘चैनल विस्फोट’ ने नए-नए तथा कुछ विचित्र किस्म के तथाकथित धार्मिक गुरुओं को जन्म एवं तीव्र विकास-दर के रास्ते उपलब्ध कराकर श्रद्धालुओं की संख्या में आशातीत इज़ाफा ही किया है। भारत में मूलतः अब तक की राजनैतिक निराशा ने एक प्रकार से विशेषकर इस धर्म के लोगों को पूरी तरह भले ही न सही, लेकिन काफी सीमा तक ध्रुीवकरण करने में मदद की है। लेकिन एक लोकतांत्रिक एवं पंथनिरपेक्ष प्रतिबद्धता वाले राष्ट्र की राजनीति कट्टरता एवं संकीर्णता के रथ पर सवार होकर लम्बी दूरी तय नहीं कर सकती। फलस्वरूप भारत की प्राचीन प्रज्ञा की नवीन एवं तार्किक व्याख्या किए जाने की एक सुगबुगाहट दिखाई पड़ रही है। हांलाकि इसी दौर में कुछ मठाधीश किसी पंथ विशेष की बढ़ती महत्ता तथा उसके कारण उसकी बढ़ती समृद्धि को लेकर सवाल उठाते हैं, लेकिन न तो उन सवालों के केन्द्र में कहीं भी तर्क होता है, और न ही उनके लिए दिए गए जवाबों में। नये राजनैतिक नेतृत्व के इस संक्षिप्त से काल ने उन छद्म प्रगतिशील बुद्धिवजीवियों एवं राजनेताओं की उस आवाज की बुलंदी को थोड़ा मद्धिम किया है, जो भारत की समस्त प्राचीन विरासत की आलोचना करने के लिए उठती थी अथवा चुप्पी साधने में अपनी भलाई समझती थी। इनमें से कुछ के बदले हुए सुर तो अब चैंका ही रहे हैं, जब तुलसीदास को जातिवादी एवं घोर हिन्दूवादी मानने वाले ये विचारक अब उन्हें प्रासंगिक करार दे रहे हैं।
कुल मिलाकर यह कि धार्मिक विचारों के स्तर पर फिलहाल समुद्र-मंथन का दौर चल रहा है। मंथन से क्या निकलेगा, यह अनिश्चित नहीं है। प्रतिगामी विचारों का किसी काल विशेष में भले ही आधिपत्य हो जाये, लेकिन वे कालजयी नहीं हो सकते। यह क्षमता केवल उन विचारों में ही होती है, जो वैज्ञानिक होते हैं। यानि कि जो अपनी तार्किक दिप्ती में हमारी आस्थाओं के आधार बनते हैं।

नोट: डॉ. विजय अग्रवाल द्वारा लिखित यह लेख 11 दिसंबर 2015 के ‘दैनिक जागरण’ से लिया गया है।

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