Dr. Vijay Agrawal

  • Home
  • Life Management
  • Blog / Articles
  • Books
    • English
    • Hindi
    • Marathi
    • Gujarati
    • Punjabi
  • Video Gallery
  • About
  • Contact
You are here: Home / Blog / धन से पायें मोक्ष!

धन से पायें मोक्ष!

यह एक अच्छी बात है कि पिछले लगभग पन्द्रह सालों से भारतीय समाज में धनवान लोगों के प्रति लोगों की धारणा में बदलाव आया है और यह बदलाव अच्छी ही दिशा में है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दार्शनिक कार्ल माक्र्स द्वारा स्थापित माक्र्सवादी सिद्धान्तों से प्रभावित लोगों ने पूँजी की जितनी तीखी आलोचना की, उतनी किसी और ने नहीं। शायद यह एक बहुत बड़ा कारण रहा कि इसके प्रभाव से भारतीय जनमानस हर धनी व्यक्ति को जोंक की तरह एक शोषक के रूप में देखने लगा। लेकिन मजेदार बात यह है कि भारतीय दार्शनिकों, नीतिशास्त्रियों, समाज नियामकों और यहाँ तक कि धर्मशास्त्रियों तक ने कभी भी धनवान लोगों को न तो पाप का कभी भागीदार ठहराया और न ही उन्हें शोषक के रूप में देखा। हाँ, उनका इस बात पर जरूर बहुत अधिक जोर रहा कि धन अर्जित करने की पवित्रता को हर हालत में बनाए रखा जाना चाहिए।

धन से पायें मोक्ष!
धन से पायें मोक्ष!

शासक मनु भारतीय समाज और आचार की संहिता लिखने वाले प्रथम विचारक हुए हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध संहिता ‘‘मनुस्मृति’’ के पाँचवे अध्याय के श्लोक 109 में जो बात लिखी है, मुझे लगता है कि उसे केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी ऐसे लोगों को जानना चाहिए, जो धन अर्जन के प्रति थोड़े भी आकर्षित हैं। ऐसा करके वे न केवल समाज में अपनी प्रतिष्ठा ही मजबूत कर सकेंगे, बल्कि कभी-कभी देश में आने वाले भयानक आर्थिक संकटों से भी बच सकेंगे। मनु ने बारह प्रकार की पवित्रताओं का उल्लेख किया है। इसी संदर्भ में वे लिखते हैं कि ‘‘वास्तव में सभी प्रकार की पवित्रताओं में सबसे अधिक महत्त्व अर्थ की पवित्रता का है। जिसकी कमाई ईमानदारी की है, वह सचमुच और सदैव ही पवित्र है। और यदि धन के उपार्जन में पवित्रता नहीं, तो मिट्टी, जल आदि से स्वयं को शुद्ध करने का कोई लाभ नहीं है।’’

आमतौर पर जब लोग धन को पतन का कारण मानते हैं या फिर जब ईसा मसीह यह कहते हैं कि ‘‘एक सुई की छेद से ऊँट का पार हो जाना तो सम्भव है, लेकिन एक धनी व्यक्ति का मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करना सम्भव नहीं है,’’ तो हमें इसे सीधे-सीधे धन से न जोड़कर धन से पैदा होने वाली उन मनोवृत्तियों से जोड़ना चाहिए, जो उस धनी व्यक्ति के पतन का कारण बनती है। ईसा मसीह इसके पहले संदर्भ को प्रस्तुत करते हैं और ‘‘रामचरितमानस’’ की स्वर्ण मृग की कथा इसके दूसरे संदर्भ को।

ईसा मसीह ने अपने इस कथन में जिस ऊँट का उल्लेख किया है, वह वस्तुतः कोई पशु न होकर मनुष्य के अहम का प्रतीक है। सामान्यतया यह माना जाता है कि धनी व्यक्ति को अपने धन का अहंकार हो जाता है, जिसके कारण उसके सारे मानवीय मूल्य समाप्त हो जाते हैं। वह कोमल भावनाओं से वंचित हो जाता है। अर्थशास्त्री रिकार्डो ने इसी तरह के मनुष्य को ‘‘अर्थमानव’’ कहा है। जाहिर है कि जिसमें दंभ होगा, उसमें विवेक नहीं हो सकता और जिसमें विवेक नहीं होगा, वह भला ईश्वर के विनम्र-द्वार में प्रवेश कैसे पा सकता है।

दूसरा संदर्भ लोभ से जुड़ा संदर्भ है और यह बहुत प्यारा और सुन्दर संदर्भ है, जिसकी मैं यहाँ थोड़ी विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा।

भगवान श्रीराम यदि विष्णु के अवतार हैं, तो जाहिर है कि सीता भी लक्ष्मी की अवतार थीं। लक्ष्मी यानी कि स्वयं धन की देवी। सीता राजा की बेटी थीं और राजा की ही बहू बनकर आइ थी। लेकिन जब उन्हें अपने पति के लिए पत्नी धर्म निभाने की जरूरत पड़ी, तो अयोध्या के ऐश्वर्य को छोड़ने में उन्होंने क्षण भर भी नहीं लगाया।

महोपनिषद में कहा गया है कि ‘‘आप वही हो जाते हैं, जो आपकी गहरी आकांक्षा होती है।’’ हालांकि सीता राजमहल को छोड़कर तो आ गई थीं, लेकिन थीं तो आखिर में धन की ही देवी न। इसीलिए तो जब उन्हें स्वर्ण मृग दिखाई दिया, तो वे उसके प्रति आकर्षित होने से स्वयं को रोक नहीं सकीं। भगवान श्रीराम समझ गए कि यह ठीक नहीं है। धन का होना अलग बात है, लेकिन धन के प्रति आकर्षण का होना, लोभ का होना अलग बात है। आमतौर पर तो हमें यही लगता है कि उधर राम स्वर्ण मृग का शिकार करने गए और इधर रावण सीता का अपहरण करके अपने स्वर्ण महल में ले गया। मैं इसे इस रूप में लेता हूँ और मैं इस पर विश्वास भी करता हूँ कि हमारी हर गहरी आकांक्षा को ईश्वर पूरा करते हैं। चूँकि सीता में स्वर्ण के प्रति गहरी आकांक्षा थी, इसलिए भगवान श्रीराम ने सोचा कि पचास-सौ किलो का स्वर्ण मृग तो क्या, मैं तुम्हें ऐसी जगह पहुँवा देता हूँ, जहाँ यदि तुम चाहो तो सोने के ऐसे सैकड़ों स्वर्ण मृग बनवा सकती हो। इस प्रकार सीता पहुँच गईं सोने की नगरी श्रीलंका में।

लेकिन जीवन का सच स्वर्ण का सच नहीं है, श्रीराम को सीता को ही नहीं बल्कि पूरे भारतवर्ष को यह सन्देश भी देना था। यह भी बताना था कि ऐसा कभी नहीं समझा जाना चाहिए कि जीवन के सुख योग्यता के मापदण्ड और प्रेम निवेदनों में ही समाहित हैं। इसलिए तो स्वर्ण नगरी का शासक रावण जब सीता से पटरानी बन जाने के लिए प्रेम निवेदन करता है, तो सीता को उसके इस निवेदन को ठुकराने में एक क्षण भी नहीं लगता। यहाँ गौर करने की बात यह है कि हालांकि एक ओर तो सीता के मन में स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षण था, किन्तु जब प्रेम जैसी भावना की बात आयी, तो उन्हें स्वर्ण का महल भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका।

भगवान श्रीराम ने दूसरा काम यह किया कि सीता की आँखों के सामने ही उस स्वर्ण महल की निःस्सारता को ही सिद्ध करके दिखाया। सीता के सामने ही देखते-देखते क्षण भर में सोने का वह महल जलकर नष्ट हो गया। इससे भी बड़ी बात यह कि उस महल को जलकर नष्ट करने के लिए न तो किसी अग्निबाण जैसे मंत्र सिद्ध शक्ति की जरूरत पड़ी, और न ही किसी जादू-चमत्कार या माया की। सोने के इतने विशाल महल को जलाने का काम किया एक वानर ने यानी कि एक ऐसे जीव ने, जो मनुष्य से भी एक श्रेणी नीचे का जीव था। न केवल स्वर्ण नगरी ही जलकर भस्म हुई, बल्कि एक महीने के अन्दर-अन्दर उस नगरी का मालिक रावण भी नष्ट हो गया।

यहाँ यह बात कम महत्त्व की नहीं है कि भगवान श्रीराम का न तो ऐश्वर्य से विरोध है और न ही स्वर्ण की उस नगरी से। उनका विरोध है तो स्वर्ण के प्रति उस लोभ से जो दस-दस मस्तिष्क के होने के बावजूद व्यक्ति को इतना अविवेकी और इतना लोभी बना देता है कि प्रकृति की सारी शक्तियाँ उसके सामने निरीह हो जाती हैं। यह विरोध धन का नहीं बल्कि धन से उत्पन्न कुप्रवृत्तियों का विरोध है। विभीषण में वह कुप्रवृत्ति नहीं है, इसीलिए तो श्रीराम अपने राज्याभिषेक के बाद विभीषण को उसी लंका का राज्य सौंपते हैं, जिसे उनके दूत हनुमान ने जला दिया था। अन्यथा वे विभीषण को कह सकते थे कि ‘‘लंका को छोड़ तुम कहीं और अपनी राजधानी बनाना।’’ आखिर खुद के लिए भी तो उन्होंने चैदह वर्ष का वनवास काटने के बाद अयोध्या लौटकर राजा बन जाने के ही विकल्प को स्वीकार किया था। यदि धन और ऐश्वर्य से उन्हें इतना विरोध होता, तो उनके सामने अनेक विकल्प खुले थे तथा चौदह वर्ष का त्यागपूर्ण जीवन बीताने वाले अपने भाई भरत को पुरस्कार के रूप में अयोध्या का राज्य सौपकर स्वयं चित्रकूट के उस कामथ पर्वत पर जाकर संन्यासयुक्त जीवन व्यतीत करते, जहाँ उन्होंने अपने वनवास के तेरह वर्ष बिताए थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे इस बात को जानते थे कि धन का विरोध करने मात्र से धर्म नहीं मिलता है। धर्म तो मिलता है धन के पवित्रतापूर्ण अर्जन से और फिर मोक्ष प्राप्त होता है उस धन के धर्मपूर्ण उपयोग से।

यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो आप पूरे मध्यकाल के सन्तों की वाणियों को उठाकर देख लें। कबीरदास बहुत विद्रोही संत थे। मुझे वे सच्चे आध्यात्मिक महापुरूष लगते हैं। वे विद्रोही संत थे। उन्होंने धर्म के उन सभी रूपों का विरोध किया, जो पाखंड से जुड़े हुए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी सीधे-सीधे धन का विरोध नहीं किया। न ही उन्होंने कभी विरोध किया धनी लोगों का। यदि पाखंडी गरीब भी है, तो वह पापी है और यदि धनी व्यक्ति सरल, सहज है, तो वह इसलिए पापी नहीं है, क्योंकि वह धनी है। कबीर स्वयं गरीब रहे और इस लिहाज से यदि वे चाहते तो ईष्र्या से भरकर धनी लोगों का सीधे-सीधे विरोध कर सकते थे। लेकिन वे जानते थे कि ऐसा करना कोई बड़ी समझदारी की बात नहीं होगी। यह बात अलग है कि मनुष्य के अधःपतन के कई कारणों में से एक कारण धन भी होता है, लेकिन वे यह कभी नहीं माने कि जिसके पास धन होगा, उसका अधःपतन निश्चित ही है।

धन से पायें मोक्ष!
धन से पायें मोक्ष!

वर्तमान युग में मैं कुछ ऐसे धनी लोगों के नाम यहाँ लेना चाहूँगा, जिन्होंने सही अर्थों में धन के प्रति जो भारतीय अवधारणा रही है, उस रास्ते पर चलकर न केवल धन ही अर्जित किया है, बल्कि प्रतिष्ठा भी अर्जित की है और एक प्रकार से धर्म को आध्यात्मिक जीवन का माध्यम भी बनाया है। जमशेदजी टाटा, नारायण मूर्ति तथा जान बफेट जैसे धनवान मुझे इसी पंक्ति में खड़े मालूम पड़ते हैं। मुझे लगता है कि इनके मार्ग का अनुसरण किया जाना न केवल धनी वर्ग के ही हित में होगा, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के हित में होगा।

नोट – यह आलेख मनी मंत्र में प्रकाशित हो चुका है |

Social Links

  • Facebook
  • Twitter
  • YouTube

Links

  • Photo Gallery
  • In the Media
  • Letters of Praise
  • Feedback

Copyright © VIJAYAGRAWAL.NET.

.

Website by Yotek Technologies