रतन टाटा के बाद अब अजीम प्रेमजी। रतन टाटा ने पांच करोड़ डालर हावर्ड बिजनेस स्कूल को दिये, तो विप्रो के अज़ीम प्रेमजी ने अपनी कम्पनी के 8.37 प्रतिशत शेयर अपने ट्रस्ट को देने की घोषणा कर दी। 8.37 प्रतिशत शेयर यानी कि की 8846 करोड़ रुपये। लगता है कि भारत के उद्योगपतियों ने वारेन बफेट और बिल गेट्स की आवाज को सुनकर उस पर कार्यवाही करना शुरू कर दिया है। हम सब उम्मीद करते हैं कि बहुत जल्दी ही इसी के आगे अब अन्य पूंजीपतियों के नाम सुनेंगे।
पिछले साल यानी कि सन् 2009 की पांच मई की तारीख और शहर था-अमेरीका की राजधानी न्यूयार्क। यहाँ एक गुप्त बैठक हुई थी लेकिन यह गुप्त बैठक न तो राजनीतिज्ञों की थी, न गुप्तचर एजेन्सियों की और न ही किसी आतंकवादी संगठन की। यह गुप्त बैठक थी अमेरीका के चुने हुए कुछ अरबपतियोंकी, जिसमें बिल गेट्स और वारेन बफेट जैसे प्रसिद्ध कुबेरपतियों के अलावा डेविड राकेफेलर, ओप्रा विन्फ्री, टेड टर्नर, मिशेल ब्लूमबर्गव तथा जॉन मोरग्रिज समेत चौदह लोग शामिल थे। इन लोगों ने बैठक में शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य, सार्वजनिक नीतिनिर्माण तथा गरीब लोगों को सीधे तौर पर मदद पहुंचाने के बारे में जमकर बातचीत की। कुछ दिनों बाद गेट्स दम्पत्ति ने लंदन में एक डिनर पर फिर से कुछ लोगों को बुलाकर इस अपील को दुहराया। इनकी यह कोशिश यहीं तक सीमित नहीं रही। बिल गेट्स चीन गये, भारत आये और इस दौरान स्थानीय धनकुबेरों से भी इस बारे में चर्चा की। अमेरीका में फिर से दो बैठकें हुईं। हालांकि अभी तक की हुई बैठकों के बारे में छुटपुट खबरें तो मीडिया में आने लगीं थीं लेकिन तीसरी बैठक के बाद इन बैठकों की खबरें मीडिया की हेडलाइन्स बनने लगीं। तीसरी बैठक के पूरा होते तक जॉन मोरग्रिज, एच.एफ.लेनफेस्ट एवं जोन डूर की पत्नियों ने यह घोषणा कर दी कि वे अपनी पूंजी का पचास प्रतिशत हिस्सा परोपकार में लगायेंगी। वारेन बफेट ने तो कमाल ही कर दिया, जब उन्होंने अपनी नेटवर्क का 99 प्रतिशत भाग परोपकारी कार्यों में लगाने का एलान किया। साथ ही बफेट ने पूरी दुनिया के अमीरों से अपील की कि वे अपनी पूंजी का आधा हिस्सा सामाजिक कामों में लगायें। फिलहाल बफेद और गेट्स दम्पत्तियों की योजना यही है कि अरबपतियों से इस बारे में एक लिखित वायदा करा लिया जाये। हालांकि यह कोई बाध्यकारी कानूनी दस्तावेज न होकर केवल एक नैतिक मामला होगा। यदि हम आकड़ों की भाषा में सोचें तो फोंर्स ने दुनिया के सबसे अमीर जिन चार सौ लोगों की सूची बनाई है, उनकी कुल नेटवर्क बारह सौ अरब डालर है। इनमें से आधा धन दान में देने का अर्थ हुआ छः सौ अरब डालर की विशाल धनराशि का इकट्ठा हो जाना। बिल गेट्स की पत्नी मिलिंडा गेट्स का कहना है कि फिलहाल कई अमीर लोग इसलिए यह धन देने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं कि इन धन का उचित इस्तेमाल सुनिश्चित कैसे किया जाये। खैर, शुरूआत हो चुकी है और देखते हैं कि आगे क्या होता है।
भले वारेन बफेट और बिल गेट्स की यह कोशिश दुनिया को नई लग रही हो, लेकिन विश्व के सभी देशों के धर्म और संस्कृति में वे तथ्य मौजूद हैं, जो व्यक्ति का अपनी सम्पत्तियों का एक निश्चित भाग दान में देने के काम को धर्म या पुण्य मानते हैं। ईसाई, इस्लाम और हिन्दू धर्म में यह अलग-अलग पद्धतियों के रूप में मौजूद है। हिन्दू धर्म ने तो गुप्त दान को सर्वोत्तम दान बताकर इसे एक नई ही गरिमा प्रदान की है। अब यह बात अलग है कि आज दान देने से पहले ही उसकी घोषणा करके इससे एक अलग तरह का राजनीतिक, आर्थिक और भावनात्मक लाभ लेने में पीछे नहीं रहा जाता।
कृपया मुझे गलत न समझें। मैं विश्व के इन धनकुबेरों के इन प्रयासों के विरोध में नहीं हूँ। लेकिन इतना जरूर है कि मैं उनकी इस नीति के बहुत पक्ष में भी नहीं हूं। फिलहाल मेरी सोच की शुरूआत इस आशंका से हो रही है कि आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ है कि दुनिया के इन श्रेष्ठतम धनकुबेरों के हृदय में परोपकार की इतनी ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगी हैं? क्या इसे अचानक उनके हृदय का परिवर्तन होना माना जाये? क्या इसे यह कहा जाये कि इनकी चेतना से एडम स्मिथ गायब हो रहे हैं और उनकी जगह कार्ल मार्क्स का विनम्र एवं संशोधित संस्करण स्थापित हो रहा है? या फिर यह मान लिया जाये कि ये सब ऊबे हुए सुखी लोग हैं और अब सुख के नये रास्तों की तलाश कर रहे हैं? या फिर यह कि ये प्रशासनिक चिन्तक मेस्लो के उस सिद्धान्त को सिद्ध कर रहे हैं जिसमें मेस्लों ने माना है कि अंतिम स्थिति में व्यक्ति आत्मसिद्धी चाहता है? इन धन कुबेरों को शायद परोपकार के इन कामों में ही आत्मसिद्धी दिखाई दे रही हो? या कहीं ऐसा तो नहीं कि ये फिर से आर्थिक शतरंज की एक ऐसी बिसात बिछाने जा रहे हैं जो दुनिया के सामने पूंजीवादी व्यवस्था का एक ऐसा परोपकारी चेहरा प्रस्तुत करेगा। यह उनके विरूद्ध उभर रहे जनाक्रोश को कम करने में अपना योगदान देकर इनकी पूंजीवादी सत्ता को न केवल बनाये ही रखेगा बल्कि उनके प्रति सदाशयता भी पैदा होगी। कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था की इस तरह की चालबाजियों के बादे में दुनिया को सतर्क किया था।
दुनिया की दरिद्रता की यह तस्वीर तब तक नहीं बदल सकती, जब तक कि दुनिया की समस्याओं के मूल में नहीं जाते। यहाँ दुनिया की समस्याओं से मेरा मतलब आर्थिक समस्याओं से है, जिन्हें अन्य शेष समस्याओं का केन्द्र माना जाता है। जब तक मूल समस्याओं के निराकरण करने के उपायों के स्थान पर अन्य उपायों को अपनाया जायेगा, तब तक इस तरह की बातों को समस्याओं को गंभीर होने से रोकने तथा कुछ समय के लिए अस्थाई तौर पर स्थगित किये जाने के अतिरिक्त अन्य किसी भी रूप में लेना अपने-आपको भ्रम में रखने के सिवाय कुछ नहीं होगा। वस्तुतः इन पूंजी पतियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि ये व्यावहारिक अर्थशास्त्र के तो बहुत अच्छे जानकार होते हैं, लेकिन सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तनकारी कारकों की जानकारी भी उन्हें होगी, इस गलतफहमी में कभी नहीं रहना चाहिए। हाँ, इन्हें अपने बारे मेंयह गलतफहमी जरुर होती हैं कि ‘‘मैं सब कुछ जानता हूँ’’। उनका यह ‘सब कुछ जानने’ का संबंध उनके धन के अहं को शिखर पर टिका होता है। अपने कारकूनों, चापलूसों से घिरे, जन समस्याओं से दूर और व्यावसायिक गतिविधियों में पूरी तरह लिप्त इन व्यक्तियों से किसी भी तरह के क्रांतिकारी परिवर्तन की अपेक्षा करना बुझे हुए अंगारों से ज्वालामुखी के विस्फोट की अपेक्षा करने से बढ़कर कुछ नहीं है। इसलिए ये इस गलतफहमी में रह रहे हैं कि अपनी सम्पत्ति का पचास प्रतिशत का दान कर देने से समाज की मूलभूत समस्याओं का समाधान निकल आयेगा और गरीबी दूर हो जायेगी। इनके इस तरह के अच्छे सुनाई पड़ने वाले वक्तव्यों को सुनकर फटाफट तालियां बजाने और तत्काल जयघोष करने की बजाय थोड़ा रुककर विचार-विमर्श करने की जरूरत है।
विचार करने का पहला बिन्दु तो यही है कि ये जिन समस्याओं के निराकरण करने की बात कर रहे हैं, वे समस्यायें हैं कहाँ? जाहिर है कि न तो अमेरीका में और न ही यूरोप में। यदि हम महाद्वीप की भाषा में बात करें तो ये समस्यायें मूलतः अफ्रीका और एशिया महाद्वीप की हैं। अमेरीका और यूरोप की जो समस्यायें हैं, उन्हें दूर करने में धन की जरूरत नहीं है, बल्कि कहीं न कहीं धन ही इनके लिए समस्या बन गई है। शायद वे इसी के निस्तारण में अपनी इस समस्या का हल ढूंढ रहे हों। खैर। तो जाहिर है कि चाहे शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या हो अथवा गरीबी की, ये भारत, चीन तथा अफ्रीका जैसे उन विकासशील देशों की समस्यायें हैं, जहाँ उनके व्यापार के लिए विशाल बाजार मौजूद हैं। यहाँ खरीददार तो हैं, लेकिन खरीदने की ताकत नहीं है। विकसित देशों के सामने अपने सामान को बेचने के संकट का समाधान बाजार और बाजार की क्रय शक्ति को बढ़ाने में है। ऐसी स्थिति में उनके लिए यह जरूरी हो जाता है कि गरीबी को दूर करें और इस तरह के एक वृत्त के रूप में दूर करें कि वह एक हाथ से दें और दूसरे हाथ से वापस ले लें। भारत में मौजूद बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पिछले बीस साल के दौरान इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ चुकी हैं कि हिन्दुस्तान का दो तिहाई बाजार अभी भी उन गांवों में मौजूद है, जहाँ के लोग गरीब हैं और स्वास्थ्य एवं शिक्षा की सुविधाओं से वंचित हैं। यह एक प्रकार से मशीनरी किस्म का परोपकार है, जो आपको सब कुछ देता है और बदले में आपसे आपका वह सब कुछ ले लेता है जो आप की अपनी चीज़ होती है।
इससे पहले कि ये धन कुबेर अपने कमाये हुए धन को दान के रूप में दे देने का अहम पालें, उन्हें उन प्रतिक्रियाओं पर गहरी एवं सम्पूर्ण मानवीय संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए, जिनके आधार पर उन्होंने धन अर्जित किया है। इसे आप सीधे-सीधे आर्थिक शोषण से जोड़कर न देखें। इसमें आर्थिक व्यवस्था का वह सम्पूर्ण परिदृश्य शामिल है, जिनका सही और गलत उपयोग करके वे अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुँच पाते हैं। नियम-कानूनों का उल्लंघन, भ्रष्टाचार, राजनीतिक गठबंधन, प्रतिस्पर्द्धा, आर्थिक षड़यंत्र, गलाकाट प्रतियोगिता, भावनात्मक दमन, युद्ध तथा पर्यावरण का विनाश आदि कुछ ऐसे बिन्दु हैं, जिनकी कसौटियों पर इन्हें अपने अकूत सम्पत्ति को कसकर देखना चाहिए। शायद यह कहना बहुत गलत नहीं होगा कि आज दुनिया के सामने जितने भी भयावह संकट दिखाई दे रहे हैं, मसलन युद्ध, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य जैसे संकट, उनके केन्द्र में कहीं न कहीं यह पूंजीवादी दर्शन मुख्य रूप से काम करता है। अन्यथा क्या कारण है कि अमेरीका दुनिया से तो शांति की अपील करता है, लेकिन स्वयं शांति के नाम पर आक्रामण करता है। दुनिया से तो पर्यावरण को नष्ट करने वाली जहरीली गैसों के से उत्पाद में कटौती करने को कहता है, लेकिन खुद ऐसा नहीं करना चाहता। क्या वह इस भ्रम में है कि लोग इस तरह की दोमुंही बातों को समझते नहीं हैं। जिन समस्याओं के निराकरण के लिए अपनी जमा सम्पत्ति के पचास प्रतिशत भाग को दान में देकर ये महादानी कर्ण कहलाना चाहे रहे हैं, मजेदार बात यह है कि उन समस्याओं को जन्म देने और लगातार उसे बढ़ाते रहने के जिम्मेदार ये खुद हैं। इनकी यह कोशिश एक प्रकार से कीचड़ को कीचड़ से धोने की कोशिश है, जो देखने वालों के मन में यह भ्रम पैदा कर देने में सफल है कि आखिर में धोने का काम तो किया जा रहा है न। फिर चाहे भले ही कीचड़ की सफाई न ही हो।
दुर्भाग्यजनक स्थिति यह भी है कि पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जितने बड़े-बड़े स्कैंडल हुए हैं, उनमें मुख्य रुप से कहीं न कहीं इन धनकुबेरों की भूमिका रही ही है, फिर चाहे वह बिल गेट्स का माइक्रोसाफ्ट स्कैंडल हो, टू जी स्पेकट्रम या सत्यम घोटाला या वेदांत। इससे भी बुरी स्थिति भविष्य के प्रति दिखाई दे रही है राडिया टेप कांड के मामले में रतन टाटा ने इसे सार्वजनिक न किये जाने की गुहार अदालत से लगाकर एक प्रकार से, कम से कम भारत के लोगों की आस्था को झकझोरकर रख दिया है। निसंदेह रूप से टाटा, जिन्हें हम भारतीय गर्व से ईमानदारी और पारदर्शिता का मानक मानते थे, इस कांड के बाद शंका के दायरे में तो आ ही गया है। यहाँ तक कि गरीबों का उद्धार करने के नाम पर माइक्रोफाइनेंसिंग कम्पनियों के बारे में जो कुछ पढ़ने को मिल रहा है और जिसे देखते हुए आंध्रप्रदेश के बाद अब भारत सरकार ही कानून बनाने की सोच रही है, की नियत पर भी शक किया जाना चाहिए, फिर भले ही किसी को इसी काम के लिए नोबल पुरस्कार ही क्यों न दे दिया जाए। उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश के मोहम्मद यूनूस को इसी काम के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया है, और उनके गरीबों को दी जाने वाली ब्याज की दर तेईस प्रतिशत से कम नहीं है।
यदि सचमुच में समाज के वंचित तबके को ऊपर लाने के प्रति इन उद्योगपतियों में ईमानदारी है, तो उन्हें यह समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि इसका एक बहुत बड़ा आधार धन का वितरण होता है। किसी भी देश में समस्या धन की इतनी नहीं है, जितनी कि उसके वितरण की। आज यदि हम उद्योगों एवं कार्पोरेट्स के वेतन के स्वरूप को देखें, तो इनके उच्च स्तरीय एवं निम्न स्तरीय वेतन में बहुत अधिक अन्तर दिखाई देता है-करोड़ों एवं हजारों का अन्तर।
विदेशों में भले ही श्रम की कीमत हो, लेकिन भारत में तो बिल्कुल भी नहीं है। पांच करोड़ सालाना वेतन पाने वाले सीईओ की गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर को पन्द्रह हजार से अधिक नहीं मिलते। चूंकि विदेशों में श्रम की कीमत है, इसीलिए वहाँ उन देशों जैसी भयावह गरीबी नहीं हैं, जहाँ श्रम मूलतः तिरस्करणीय है। यदि उद्योगपति इस दिशा में कोई समुचित मापदण्ड बना सकें तो यह एक प्रकार से एक वैधानिक समाजसेवा होगी न कि धार्मिक या नैतिक, जिसकी सही मायने में बहुत अधिक जरूरत भी नहीं है।
हजारों साल से दान की परम्परा चली आ रही है और जिन समस्याओं के निराकरण के लिए यह दान दिया जा रहा है, वे अब भीज्यों की त्यों हैं। सच पूछिये तो हमारे समाज का नेतृत्वकताओं और चिन्तकों को मिलकर एक ऐसी आचार संहिता के बारे में विचार करना चाहिए, जो इस धरती को इन समस्याओं से हमेशा-हमेशा के लिए उबार सके। भारत के संदर्भ में मैं एक उपाय सुझाना चाहूंगा। भारत के पौने छः लाख गांवों में से दो लाख गांव ऐसे हैं, जिनकी आबादी दो सौ से भी कम है। फिलहाल इनमें रहने वाले चार करोड़ लोगों को हम छोड़ देते हैं। शेष पौने चार लाख गांवों में लगभग एक लाख गांव ऐसे हैं, जो अपने-आपमें सक्षम हैं। यदि आकड़ों की भाषा में बात करें, तो भारत के पास दो लाख पचहत्तर हजार गांव ही ऐसे बचते हैं, जिन्हें सही मायने में विकास की जरूरत है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि भारत के हमारे उद्योगपति कुछ गांवों को गोद लेकर उनके सर्वांगीण विकास के लिए काम करें। इस सर्वांगीण विकास का स्वरूप कुछ इस तरह का हो, जो उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए स्वावलंबी बना देगा, जिसे चीन के मुहावरे में ‘‘मछली परोसने की बजाए मछली पकड़ना सीखा देना’’ कहते हैं। यदि एक औद्योगिक घराना एक गांव ले, तो भारत में पौने तीन लाख तो ऐसे घराने हैं ही। मुझे लगता है कि बजाय किसी एक क्षेत्र के लिए धन देने के यदि पूरी दुनिया के दानदाता मिलकर एक समेकित योजना के तहत काम करें, तो वह अधिक व्यावहारिक होगा। अब तक के ऐसे धनों के उपयोग का अनुभव यही रहा है कि कुल खर्च का तीन-चौथाई हिस्सा केवल इस्टेबलिसमेंट की बलि चढ़ जाता है। बेहतर होगा कि एक अन्तर्राष्ट्रीय कोष बनाया जाये, जिसमें एकत्रित धन का समेकित उपयोग करने की एकीकृत नीति तैयार करके चरणबद्ध तरीके से समस्याओं के निराकरण के लिए सामने आ जायें। ऐसा करने से शायद कुछ व्यावहारिक लाभ दिखाई दे, अन्यथा भारत पिछले पन्द्रह वर्षों से अपने यहाँ बच्चों को पोलियो के टीके लगवा रहा है, लेकिन पोलियो का कीटाणु है कि हिन्दुस्तान को छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा है।
नोट- यह लेख सबसे पहले जनसत्ता अखबार में प्रकाशित हो चुका है