Dr. Vijay Agrawal

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जिन्दिगियाँ-“रेल का डिब्बा”

मुझे कभी-कभी लगता है, मानो कि हममें से ज्यादातर लोगों की जिन्दिगियाँ यहाँ तक कि 99.999% लोगों से भी अधिक की जिन्दगियां रेल का डिब्बा बनकर रह गई है। रेल का डिब्बा, यानी कि वह, जिसका अपना कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं है। इस डिब्बे के अंदर की रूपरेखा निष्चित है- वही बर्थ, उतनी ही बर्थ, वहीं पर टायलेट और वैसे ही दरवाजे। फर्क यदि थोड़ा बहुत है, तो वह एसी और नॉन एसी जैसी छोटी-मोटी चीजों का है। इससे डिब्बे में थोड़ा सुकून तो बढ़ जाता है, लेकिन पहुँचने की जगह तो नहीं बदलती। यदि इंजन एक ही हैं, वो मंजिले भी एक ही हैं सभी डिब्बों की। यहाँ तक कि मंजिलों तक पहुँचने के सबके टाइम भी एक ही है। सारे डिब्बे जिन पटरियों पर चढ़े हुए हैं, वे डिब्बे उन्हीं पर चलेंगे। इनकी दिशायें फिक्स हो गई हैं। ये चाहकर भी कुछ नहीं कर सकतीं। यदि कभी कुछ करने की सोची भी तो लालबल्तियों और हरी बत्तियों का आदेश आ जायेगा कि ऐसा करो, ऐसा मत करो, उधर जाओ, इधर रुको।

क्या आपको नहीं लगता कि हम सबके साथ कमोवेश ऐसा ही हो रहा है कि एक उम्र के बाद हम सभी ने अपने जीवन को रेल के डिब्बे में कन्वर्ट हो जाने दिया है। इसमें न तो नई दिशा की ओर की नई यात्रा का रोमांच और उत्साह रह गया है, और न ही उस पुरानी यात्रा का कोई नयापन। चूंकि यात्रा करनी है, इसलिए यात्रा हो रही है। अब तो इस तक का एहसास खत्म हो गया है कि हम यात्रा कर भी रहे हैं। यह यात्रा तो बस अपने आप यूं ही हो रही है।
मैं नहीं जानता कि आप इस तरह के लोगों में शामिल हैं या नहीं। यदि नहीं हैं, तो आपका अभिनंदन है, शत-शत अभिनंदन है, क्योंकि यह जिन्दगी बनी ही है एक आनंदपूर्ण एवं नवीन यात्रा के लिए। यदि आप इसमें शामिल हैं, तो फिर आपको चाहिए कि आप स्वयं से एक यह प्रश्न करें कि “मैंने अपने जीवन को रेल का एक डिब्बा बनाने की बजाय इसे एक इंजन बनाने के लिए किया क्या-क्या है, सिवाय काँय-काँय करने के?” यदि आपको उत्तर मिलता है कि ‘तुमने यह-यह किया है’, तो फिर उस उत्तर से फिर एक प्रश्न कीजिए कि कितनी ईमानदारी के साथ किया है? मित्रो, यहाँ आकर आपको लगने लगेगा कि सच में हम डिब्बा ही बने रहने में कम्फर्टेबल महसूस करने लगे हैं। तो फिर भला शिकायत कैसी?

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