पगला गए हैं गुस्से में परशुराम। जब गुस्सा ज्यादा होता है, तो आदमी कभी अपना संतुलन बनाए रख ही नहीं पाता, फिर चाहे वह कितना भी क्यूँ न कहे कि ‘मैं ठीक हूँ, आई एम ओके’। वह ठीक नहीं रहता। वह ओके नहीं रहता। केवल कहता भर है। परशुराम जी गुस्से में हैं। धमक आए हैं स्वयंवर स्थल पर। जनक जी ने उन्हें बता दिया कि यह क्यूँ हुआ। बता दिया कि सीता का स्वयंवर रचा गया था। इस पर परशुराम जी जनक से पूछते हैं ‘रे मूर्ख जनक! बता धनुष किसने तोड़ा। नहीं तो अरे मूढ़! जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा।’
सोचें जरा परशुराम जैसे ज्ञानी ऋषि-मुनि के इस वक्तव्य पर। क्यों पूछ रहे हैं आप धनुष तोड़ने वाले का नाम। क्या करेंगे आप उसका नाम जानकर। जाहिर है कि आप उसे जलील करेंगे, उससे लड़ेंगे और उसको मार डालेंगे। लेकिन हे मुनिश्रेष्ठ, आप जरा धनुष तोड़ने वाले का दोष तो बताएँ। उस बिचारे ने किया क्या है। उसने तो केवल इतना किया है कि एक प्रतियोगिता रखी गई थी और राम ने उस प्रतियोगिता में भाग लेकर सफलता प्राप्त कर ली है।
इसमें भला राम की क्या गलती थी? यहाँ तक कि इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जितने भी शूर-वीर, राजे-महाराजे आए थे, उनका भला क्या दोष था? यदि किसी की गलती थी, तो कार्यक्रम के आयोजक की थी और आयोजक थे राजा जनक। यह बात राजा जनक ने आपको साफ-साफ बता ही दी है। तो अब आप धनुष तोड़ने वाले का नाम भला क्यों पूछ रहे हैं। जो भी सज़ा देनी है, जनक को देकर मामले को रफा-दफा कीजिए।
लेकिन नहीं, परशुराम ऐसा नहीं करेंगे। उन्हें जनक से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि उनके दंभ को अभी जो चुनौती मिली है, वह जनक से नहीं, बल्कि धनुष को तोड़ने वाले से मिली है। उनकी चिंता धनुष के टूटने की चिंता नहीं है। उनकी चिंता तो अपने दर्प के टूटने की चिंता है। इसलिए वे आयोजक को छोड़कर प्रतियोगिता में विजयी होने वाले को पकड़ते हैं।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।