जैसे दीपावली का ख्याल आते ही जेहन में जलते हुए दीए झिलमिलाने लगते हैं, ठीक वैसे ही होली की याद कौंधते ही दिमाग के पटल पर रंगों के न जाने कितने इन्द्रधनुष बेतरतीब ढंग से पसर जाते हैं। होता तो यहाँ तक है दोस्तों कि जब कभी रंगों की दुकान के सामने से गुजरने का मौका मिलता है, स्मृति में छोटी-मोटी अस्थायी होली अपने आप मच जाती है। अच्छा ही है कि ऐसा होता है, अन्यथा सोचकर देखिए कि यदि यह न हो तो आदमी कितना बेरंग हो जाएगा। भगवान ने आदमी को इतना रंगीन नहीं बनाया, लेकिन आदमी क्या कम है। उसने खुद को रंगीन बनाने की न जाने कितनी और क्या-क्या तरकीबें ढूँढ निकालीं, और होली इन तरकीबों में से सबसे उम्दा तरकीब है।
अब शीत का शोक समाप्त हो गया है, क्योंकि बसंत के कंधे पर सवार होकर होली जो आ गई है, और वह भी अपने पूरे दल-बल के साथ। धरती सरसों के पीले फूलों और गेहूँ ही धूसर बालियों से पटी पड़ी है। जंगल पलाश के लाल फूलों से दहक रहे हैं, और सड़कों के किनारे तथा यहाँ-वहाँ खड़े पलाश के झुंड जगह-जगह अलाव जलाए हुए हैं। आम्रमंजरियों ने फूलों को अपनी सुंगध का दान क्या दिया, वह लोगों को बौराने लगी। फर्क नहीं पड़ता कि आप गाँव-गँवई के खेतों में हैं, या शहर की अपनी बाल्कनी में, यह हवा आपको फगुवाए बिना छोड़ेगी नहीं। अगर आप फगुवा नहीं रहे हैं, तो आपको चिंतित हो जाना चाहिए कि आपके आंतरिक मैकेनिज्म में कहीं कोई खामी आ गई है। बाहर का सब कुछ बदल गया है, लेकिन अन्तस ज्यों का त्यों हो, तो यह गड़बड़ी नहीं है, तो क्या है? होली पर एक मनभावन गीत है-
फूले ढेर पलाश तो लगा होली है।
मचने लगा धमाल तो लगा होली है।
गोरी हुई उदास तो लगा होली है।
पलकों पे सजी आश तो लगा होली है।
होली क्या आती है, पूरी प्रकृति में महारास शुरू हो जाता है। इसे हम ऋतुराग भी कह सकते हैं, क्योंकि नृत्य के बिना और गान के बिना होली पूरी होती ही नहीं। और जहाँ नृत्य होगा, संगीत होगा, गान होगा वहाँ उल्लास ही उल्लास होगा। जब प्रकृति में चारों ओर उमंग है, तो मन भला उदास कैसे रह सकता है? लेकिन कभी-कभी यह उदास हो भी जाता है, अपने किसी उसको याद करके, जो फिलहाल पास में नहीं है। फिर भी फाग मन में एक आशा जगाती है, उसके आने की आशा और इस प्रकार होली उदासी में भी उल्लास पैदा करने की ताकत रखती है। दरअसल प्रकृति की दुर्निवार शक्ति का ही नाम तो होली है।
रंगों का यह पर्व भारत के जीवन दर्शन को जितनी सम्पूर्णता के साथ पेश करता है, उतना शायद ही कोई अन्य पर्व करता हो। एक जा रहा है, दूसरा आ रहा है। आने का होता है अभिनंदन, और जाने का होता है शोक। लेकिन होली की खूबी यह है कि यह आने वाले के साथ-साथ जाने वाले को भी अभिनंदित करता है, और गा-गाकर उसे खुशी-खुशी विदा करता है। यदि जन्म उल्लास का आधा है, तो फिर मृत्यु शोक का कारण कैसे बन सकता है, क्योंकि मृत्यु के कारण ही तो जन्म संभव होता है। यदि पतझड़ में पत्ते झड़ेंगे नहीं, तो उस वृ़क्ष पर नए पत्ते आएंगे कहाँ से? यानी कि होली का संदेश ही यह है कि यह सम्पूर्ण प्रकृति और यह सम्पूर्ण जीवन उल्लासमय है, आनंदमय है।
हमारे यहाँ ब्रह्म को सद्चिदानंद कहा गया है। वह आनंद से परिपूर्ण है। शिव का भले ही तांडव नृत्य अधिक प्रसिद्ध है, लेकिन वे लास्य नृत्य भी करते हैं। ऐसे आनंद से भरी हुई चेतना जब जगत का निर्माण करेगी, तो जाहिर है कि सोने से बने हुये आभूषण रूप में भले भी बदल जायें, लेकिन मूल में तो स्वर्ण ही रहेंगी न। होली का संदेश यही है। जीवन में दुख-तकलीफें आती है, बाधायें परेशान करती है। कभी-कभी लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है। लेकिन यह भाव स्थायी नहीं होना चाहिए, क्योंकि जीवन अंततः बना तो आनंद से है, और इसलिए वह मूलतः है आनंद ही।
उल्लास के, उमंग के, आनंद के तीन स्तर होते है। एक है प्रकृति का स्तर। होली की प्रकृति में उमंग बिखरा पड़ा है। दूसरा स्तर होता है देह का। यह दैहिक स्तर पर आनंद की अभिव्यक्ति है। ओंठ मुस्करा रहे हैं, लेकिन हो सकता है कि दिल में गम भरा हुआ हो। तीसरा स्तर हृदय का स्तर है। जब उल्लास इस स्तर पर पहुँचता है, तो शेष दोनों स्तर इससे सराबोर हो जाते हैं। इसे ही कहते है ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।‘’
महत्वपूर्ण बात यह है कि होली मनाने से ज्यादा जीने का त्यौहार है, क्योंकि इसमें हमारे मन को रूपांतरित करने की शक्ति है। यह मन के रूपांतरण का पर्व है, और मन रूपांतरित हो जाये, बदल जाये, इसके लिए इस पर्व मैं रंगों का इतना ज्यादा विधान किया गया है कि यह ‘रंगपर्व’ ही कहलाने लगा है। दृश्यों के रूप हमारे मन के स्तरों के अनुरूप बदल जाते हैं, ‘जाकी रही भावना जैसी’ की तर्ज पर। लेकिन रंग मन के सभी स्तरों को भेद कर चेतना के गहरे उतर जाते हैं। इसका सम्मिलत प्रभाव अद्भुत और कभी-कभी तो रहस्यपूर्ण भी होता है। रंगों का यही प्रभाव होली का प्रभाव है, जो तन से अधिक मन को रंगता है, और रंगता भी ऐसा है कि फिर छुटाये नहीं छूटता, फिर चाहे वह कृष्ण का काला रंग ही क्यों न हो।
मन में यदि कोई खटका रह जाए, तो मन पूरी तरह उमगता नहीं है। उसमें थोड़ी सी रुकावट आ ही जाती है। गलती हो गई है। उससे क्षमा मांगने में अह्म् आड़े आ रहा है। अपने व्यवहार के लिए आप शर्मिन्दा है। अपराध का थोड़ा सा बोध है मन में। तो कोई बात नहीं। होली आपके इस मनोवैज्ञानिक संकट को समझता है। इसलिए होली ने हम सबको एक ऐसा अवसर उपलब्ध करा दिया है, जब हम सभी गिले-शिकवे दूर करके उससे गले मिल सकते हैं, और अपने अपराधबोध से मुक्त होकर हल्के हो सकते हैं। बिना हल्के हुए उड़ा नहीं जा सकता, और होली हमें हल्का होने की गुजांइश देता है। यह तो यहाँ तक अनुमति देता है कि हम अपने मन की वर्जनाओं को तोड़कर अपने मन की उमंगों को निश्चछल भाव से और वह भी अनायस ही प्रगट कर सकें। क्या यह कम बड़ी बात है? अन्य कौन का वह सर्वमान्य पर्व है, जो स्त्री-पुरुष के बीच के नैसर्गिक आकर्षण को व्यक्त करने के लिए इस तरह का सांस्कृतिक माध्यम उपलब्ध कराता है? रंग होली की भाषा है, और इसी भाषा के जरिए स्त्री-पुरुष दोनों अपनी बातें कहते हैं।
एक बात और तथा यह आखिरी बात। बात यह कि आप कम से कम अपने एक उसे अपने रंग में डुबाइये, जिससे आपको शिकायत है। तब होली के रंग साल पर आपके अंदर मौजूद रहेंगे। होली मुबारक हो आपको।