हम सभी की जिन्दगियों में इस बात से बहुत फर्क पड़ जाता है कि हम आस्था का जीवन जी रहे है, या आशंकाओं का जीवन जी रहे है। आशंकायें अनगिनत होती हैं। एक से छुटकारा मिलता है, तो दूसरी आ दबोचती है। लेकिन यदि हमने एक भी आस्था को पकड़ लिया, और उसे पकड़े रहे, तो बजाय इसके कि हम जिन्दगी के कब्जे में रहें, जिन्दगी हमारे कब्जे में आ जाती है। और मित्रों, सारा फर्क पड़ता ही इस बात से है कि कौन किसके कब्जे में है। एक अपराधी है, घोर अपराधी। वह पुलिस वालों से घिरा हुआ है। एक मुख्यमंत्री है। उसे भी पुलिस वाले घेरे हुए हैं। अपराधी और मुख्यमंत्री, ये दोनों पुलिस वालों से घिरे हुए हैं। इसके बावजूद दोनों एक नहीं हैं। दोनों की जिन्दगियों में स्वर्ग और नर्क का फर्क है। और यह फर्क केवल इसलिय है कि कौन नियंत्रित कर रहा है, और कौन नियंत्रित हो रहा है। अपराधी पुलिस के द्वारा नियंत्रित हो रहा है। जबकि मुख्यमंत्री पुलिस को नियंत्रित कर रहा है। जिन्दगी का सारा खेल इसी का तो है कि आप उससे नियंत्रित हो रहे हैं, या उसे नियंत्रित कर रहे हैं।
आस्था एक मोटे खम्भे की तरह होती है। यदि एक बार यह अपनी पकड़ में आ जाता है, तो फिर कितने भी बाढ़ और तूफान क्यों न आये, आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। आप पहले की ही तरह अपनी जगह पर डटे रहते है।
यहाँ जिस आस्था की बात की जा रही है, उसे आप यदि केवल ईश्वर या धर्म के प्रति आस्था से जोड़कर देखेंगे, तो इसका दायरा कम हो जायेगा, वस्तुत: यह वह आस्था है, किसी वस्तु के प्रति हमारी भावना की वह आस्था है, जब वह वस्तु हमारे लिये हमारी चेतना और हमारे कर्म का केन्द्र बन जाती है। यह हमारी वह सोच है, जो सड़क पर पड़े हुए पत्थर में अपनी भावना का संचार करके उसे मंदिर में पहुँचा देती है। तो यहाँ मूल बात हुई हमारी भावना, न कि कोई वस्तु या स्थान विशेष।
मुझे अपने जीवन में अब तक दुनिया के अनेक महान और सफल लोगों से मिलने का सौभाग्य मिला है, और वह भी जीवन के भिन्न–भिन्न क्षेत्र के लोगों से। इन सभी लोगों में मुझे एक जो बात सबसे कॉमन लगी वह यह थी, ये सभी लोग आस्थावान लोग थे। इन सभी में अपने उद्देश्यों के प्रति गजब की आस्था थी, और ये सबके सब लोग शिकायतों से कोसो दूर थे। दोस्तों, कम से कम यह तो हमारे ऊपर है की हम अपनी जिन्दगी को जीने के लिये शिकायतों को अपना हमराही बनाते हैं, या आस्था को।