चीन के दार्शनिक लाओत्से ने कहा था कि ‘‘जो यह कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता, वही सचमुच में जानता है।’’ मैं इस सूत्र वाक्य का बहुत बड़ा समर्थक हूँ और इसलिए जहाँ भी मुझे कुछ नया जानने का मौका मिलता है, वहाँ जाने से अपने-आपको रोक पाना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है। मैंने पहली बार रमल ज्योतिष का नाम सुना और जानने की जिज्ञासा से उनके पास पहुँच गया। उन्होंने पीतल के दो पासे फिकवाए और रेखा गणितीय केलकुलेशन करने के बाद मेरे बेटे को हिदायत दी कि “तुम रोज सुबह उठकर अपने माता-पिता के पैर छुआ करो और विश्वास रखो कि फिर तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा और तुम्हारी मनोकामनायें पूरी होती जाएंगी।”
आज के किसी भी युवा के लिए इस हिदायत को पचाकर उस पर अमल कर पाना आसान काम नहीं है। मेरे बेटे के लिए भी यह आसान नहीं था। जाहिर है कि उसने दबाव में आकर पैर छूना शुरू तो कर दिया, लेकिन निभा नहीं पाया। जब तक आस्था न हो, तब तक ऐसी चीज़ें निभती नहीं है। भूलना ऐसे कामों का स्वभाव बन जाता है। सो उसके साथ भी यही हुआ।
एक दिन मैंने अचानक देखा कि मेरा बेटा अपने मोबाइल के स्क्रीन पर ऊंगली रखता है और स्क्रीन पर उभरने वाले अक्षर और चित्र बदल जाते हैं। वह स्क्रीन के ऊपर नीचे ऊंगली फेरता है तो वहाँ कुछ चीज़ें रील की तरह ऊपर-नीचे होने लगती हैं। मेरे लिए यह दृश्य बहुत आश्चर्यजनक तो नहीं था, लेकिन इसे स्वीकार कर पाना इतना आसान भी नहीं था। अचानक मेरे दिमाग में यह बात कौंधी कि यदि आदमियों द्वारा बनाये गये इस छोटे-से मोबाइल के स्क्रीन पर ऊंगली को रख देने मात्र से वहाँ चीज़ें इतनी बदल सकती हैं, तो फिर यदि कोई व्यक्ति जब अपना हाथ किसी अन्य व्यक्ति के सिर पर रख दे, तो क्या वहाँ चीज़ें नहीं बदल सकतीं? उस मोबाइल की कीमत सात हजार रुपये है। आदमी ने इसकी खोज की है और एक थोक के भाव में ऐसे मोबाइल बना रही है। जबकि आदमी को ईश्वर ने बनाया है। यदि आप अनीश्वरवादी हैं, नास्तिक हैं, तो आप अपनी सुविधा के लिए ‘प्रकृति’ शब्द का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आदमी को प्रकृति ने बनाया है। यह वह प्रकृति है, जो करोड़ों सालों से धीरे-धीरे इवाल्व हो रही है, आगे बढ़ रही है। मोबाइल् फोन के बनने का इतिहास मुश्किल से पचीस साल पुराना है। यह यंत्र पचीस सालों के दौरान इवाल्व हुआ है। मनुष्य के बनने का इतिहास पचास लाख साल पुराना है। उसके पास अपनी ग्रोथ का और अपने सुधार का पचास लाख साल पुराना इंटेलीजेंसिया है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को कम से कम उस मोबाइल से तो बहुत आगे का यंत्र माना ही जाना चाहिए क्योंकि यह बना भी बहुत लम्बे समय से है और इसे बनाया भी प्रकृति ने है। जाहिर है कि यह मोबाइल की तुलना में ज्यादा सेंसेटिव और ज्यादा एडवांस इक्यूपमेंट है। तो यदि ऐसे इतने सेंसेटिव और एडवांस इक्यूपमेंट को आदमी स्पर्श कर दे, छू दे, उसके सिर पर अपना हाथ रख दे या उसकी पीठ थपथपाकर उसे शाबाशी दे दे या अपनी बाँहें फैलाकर उसे अपने आलिंगन में ले ले या उसके माथे को छू दे या उससे हाथ मिला ले, तो क्या उसके भाव-जगत में परिवर्तन नहीं होना चाहिए?
मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस पर थोड़ा विचार करें। आस्था की बात छोड़िये। मैं धर्म, चमत्कार, तंत्र-विद्या, जादू-टोना आदि की बात बिल्कुल नहीं कर रहा हूँ। मैं सीधे-सीधे विज्ञान की बात कर रहा हूँ और जिस विज्ञान की बात कर रहा हूँ, वह कोई आब्स्ट्रेक्ट विज्ञान नहीं है। यह भौतिकशास्त्रीय विज्ञान की बात है, जिसमें पदार्थ होते हैं, जिसमें प्रकाश होता है, जिसमें किरणें होती हैं, जिसमें तरंगें होती हैं, जिसमें अणु और परमाणु होते हैं, जिसमें संलयन और विलयन होता है और जिसमें विकास और विनाश होता है। मैं बिल्कुल भौतिकशास्त्र की दृष्टि से सोचने का अनुरोध कर रहा हूँ, जैसा कि आज हमारा मस्तिष्क तार्किक तरीके से सोचने का अभ्यस्त हो गया है।
मैने अपने बेटे से अपने मन की यह बात शेयर की। मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उसने इसका तनिक भी विरोध नहीं किया। उसने मुझे यह भी बताया कि चाहे वे ईसामसीह हों या हमारे सांईबाबा, उनकी चिकित्सा पद्धति, दूसरों में शक्ति का संचार करने की उसकी पद्धति उनके स्पर्श पर ही आधारित थी। वे छू देते थे और चमत्कार हो जाता था। माता-पिता और गुरु के छूने से सांईबाबा की तरह के चमत्कार भले ही न होते हों, लेकिन इतना तो जरूर है कि चूँकि उनका भाव-जगत अपनी संतान और अपने शिष्यों के प्रति बहुत निर्मल और उदार होता है, शुद्ध होता है, इसलिए उसका असर तो होता ही होगा।