सच पूछिये तो आध्यात्म और कुछ भी नहीं, बल्कि आपका अपना ही आन्तरिक संतुलन है। मैं यह मानता हूँ, और मैंने इसे पूरी संवेदनशीलता के साथ बहुत गहराई से महसूस भी किया है कि जब हमारा आन्तरिक संतुलन कायम रहता है, तो अपनी ही जिन्दगी के प्रति हमारा एहसास एकदम बदल जाता है। हमें अपनी ही जिन्दगी राई की तरह हल्की, किसी बागीचे की तरह रंगीन और रातरानी के फूलों की तरह खूशबूदार मालूम पड़ने लगती है। यहाँ तक कि पूरी की पूरी बाहरी दुनिया में एक अलग ही तरह का सौन्दर्य नज़र आने लगता है। इसे ही आप कह सकते हैं कि ‘‘तुझमें रब दिखता है’’। यह सब हमारे अपने आन्तरिक संतुलन का ही कमाल होता है। जब यह सध जाता है, तो साधने के लिए अन्य कुछ भी नहीं रह जाता।
भले ही अभी न सही, लेकिन आगे जाकर तो आप जिन्दगी की इस सच्चाई को गहराई से महसूस करेंगे ही कि जिन्दगी और कुछ भी नहीं, केवल एक एहसास भर है। यदि एहसास अच्छा है, तो जिन्दगी अच्छी है और यदि एहसास बुरे हैं, तो जिन्दगी कभी अच्छी नहीं हो सकती। फिर चाहे आप कितने भी बड़े पद पर क्यों न हो और कितनी भी बड़ी जायदाद के मालिक क्यों न हों। हमें यह भी क्यों भूलना चाहिए कि हमारी जिन्दगी के प्रति जिस तरह का हमारा एहसास होगा, हमारा व्यक्तित्व भी उस एहसास के साँचे के अनुकुल ढलता चला जायेगा। बुरा एहसास चेहरे पर चमक नहीं ला सकता। अच्छा एहसास चेहरे पर बुरेपन को टिकने नहीं दे सकता। कुल-मिलाकर यह कि मेरी दृष्ट में आध्यात्मिकता इस एहसास को हासिल करने की एक प्रक्रिया है, प्रोसेस है और आन्तरिक सन्तुलन इसी तरह के प्रोसेस का एक परिणाम है। यह दो तरफा काम करता है। यदि आपमें आध्यात्मिकता की चाहत होगी, तो आप धीरे-धीरे खुद ही आन्तरिक संतुलन की ओर बढ़ने लगेंगे। जैसे-जैसे आप आन्तरिक संतुलन की ओर बढ़ने लगेंगे, वैसे-वैसे आपमें आध्यात्मिकता आती चली जायेगी।