आपकी तरह मैंने भी पढ़ा है कि धृतराष्ट्र अंधा था। सच में था या नहीं, न तो आप गारंटी दे सकते है, और न ही मैं दे सकता हूँ। लेकिन हम दोनों इस बात की गारंटी तो दे ही सकते है कि बुद्धि के लिहाज से वह सचमुच में अंधा था, फिर चाहे उसकी दोनों आँखें कितनी भी स्वस्थ क्यों न रही हों। महाभारत का जो युद्ध हुआ, वह इसीलिए तो हुआ, क्योंकि धृतराष्ट्र ने अपनी बुद्धि की आँखों को भी बंद कर दिया था। अन्यथा ठीक है कि शरीर की आँखें नहीं थी, उसके लिए वे कुछ नहीं कर सकते थे। वह प्रकृति की देन थी। लेकिन बुद्धि की आँखों को यदि उन्होंने बंद कर लिया, तो उसके लिए तो जिम्मेदार वे खुद ही हुए न। वैसे जीवविज्ञानी यही मानते हैं कि जब किसी की कोई एक इन्द्रीय काम करना बंद कर देती है, तो उसकी भरपाई करने के लिए अन्य इन्द्रीयां अधिक प्रबल हो जाती हैं। धृतराष्ट्र के साथ यह नहीं हुआ।
धृतराष्ट्र मोह में जकड़ गये, अपने बेटों के मोह में। कोई अन्य व्यक्ति जकड़े, तो वह क्षम्य है। लेकिन यदि कोई राजा जकड़े, कोई शासक जकड़े, तो भला उसे कैसे माफ किया जा सकता है। धृतराष्ट्र की इस जकड़न का प्रमाण तो गीता के पहले ही श्लोक में तब मिल जाता है, जब वे संजय से पूछते हैं कि “बताओ, धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र में मेरे तथा पाण्डव के पुत्रों ने क्या किया।” संस्कृत के शब्द हैं-‘मामका पाण्डवाश्च’, यानि कि ‘मेरे और पाण्डव के पुत्रों ने’। तो जाहिर है कि यदि शासक के दिमाग में, यदि न्यायकर्ता के दिमाग में ‘मेरे’ और ‘उसके’ की बात आ गई, तो गड़बड़ी तो होगी ही, सो हो गई।
विवेक, यानी कि बुद्धि की आँखें। अपने इस विचार पर मेरी बहुत ही गहरी आस्था है कि विवेक ही वह प्रधान न्यायाधीश है, जो इस बात का फैसला करता है कि हम सबकी जिन्दगियां कैसी-कैसी होगी। जैसा होगा विवेक, उसी के अनुकूल होगा हमारा जीवन। बात साफ है, शीशे की तरह साफ है कि विचारों को बदले बिना जीवन को नहीं बदला जा सकता, कतई नहीं। इसे थोड़ा सा बदलिये, जिन्दगी बहुत ज्यादा बदल जायेगी। कम से कम इसका तो कोई विकल्प नहीं है, तब तक तो नहीं ही है, जब तक रोबोट आदमी की जगह पूरी तरह न ले ले।