मेरे प्रिय, मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि श्रीराम न केवल अपनी ही चेतना को विशुद्ध रखना चाहते थे, बल्कि अपने साथ के लोगों की चेतना को भी विशुद्ध करना चाहते थे। फिर सीता तो उनकी अर्द्धांगिनी ही थी; एक ऐसी अर्द्धांगिनी, जिसे उन्होंने मन ही मन चाहा था और अपने शौर्य के द्वारा पाया था। उनकी चेतना को तो विशुद्ध करना ही था। हो सकता है कि श्रीराम को यह लगा हो कि सीता के मन से अभी तक भी सोने का मोह गया नहीं है। इसलिये श्रीराम के लिए जरूरी हो गया था कि सीता के मन को सोने के इस मोह से मुक्त करें। समझाने से कोई समझता नहीं है। कितना भी उपदेश दे दिया जाये, कितने भी प्रवचन सुनाये जाएँ, कर्मकाण्ड और धर्मकाण्ड कराये जाएँ, लेकिन मर्म की बातें समझ में आती कहाँ है। यह सब तो अपने मन को छलावा और भुलावा देने का एक जरिया भर होता है। लेकिन घटनाओं में वह ताकत होती है, जो आदमी को बदल सकती है, बशर्ते कि वह आदमी आदमी हो, जड़ नहीं। तो राम ने सीता को समझाने-बुझाने के बजाय घटनाओं के माध्यम से बदलने का निर्णय लिया और नतीजा यह हुआ कि लंका का शासक रावण सीता का अपहरण करके ले गया।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि रावण बहुत शक्तिशाली था। यह भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि रावण स्वयंवर के माध्यम से सीता को पाना चाहता था और वहाँ पराजित होने के बावजूद सीता को पाने की उसकी इच्छा बची हुई थी, जिसे वह अपहरण के माध्यम से पूरी करता है। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह भी नहीं है कि रावण अपनी बहन सुर्पणखा के अपमान का बदला लेना चाहता था। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि रावण के पास एक ऐसा राजमहल है, जो पूरी तरह सोने का बना हुआ है। पूरी लंका सोने की थी। थी या नहीं, इससे हमारा कोई सरोकार नहीं है। मिथक ही सही, लेकिन यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि रावण की राजधानी लंका सोने की थी। राम की अयोध्या सोने की नहीं थी। न ही जनक की राजधानी सोनी की थी। लेकिन रावण की थी। तो ऐसा क्यों था? मेरी दृष्टि में ऐसा इसलिए था क्योंकि सीता का अपहरण करने के बाद उन्हें एक ऐसी जगह ले जाना था, जहाँ स्वर्ण ही स्वर्ण हो। यहाँ स्वर्ण मृग और सोने की लंका के बीच सीधा सा संबंध है। इसके माध्यम से श्रीराम शायद सीता को यह संदेश देना चाहते थे कि “हे सीते, तुम्हें तो केवल स्वर्ण मृग ही चाहिए था न। मैं वह स्वर्ण मृग तो नहीं दे सका, क्योंकि वह तो होता ही नहीं है। तुमने गलत मांग की थी। लेकिन मैं तुम्हें स्वर्ण तो दे ही सकता हूँ, इसलिए तुम जाओ और सोने के महल में ही रहो। इससे तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी।”
सीता को सीख देने का अर्थ यह नहीं था कि श्रीराम निष्ठुर हो गये थे या कि सीता के द्वारा स्वर्ण मृग मांगे जाने से उनसे विमुख हो गये थे। ऐसा वे कर ही नहीं सकते थे। वे तो सीता के सामने जीव और जगत के एक प्राकृतिक सत्य को रखना चाहते थे, ताकि सीता अपनी चेतना की विशुद्धता को प्राप्त कर सकें। इसलिए इस प्रयास का अंत केवल यह नहीं था कि सीता को स्वर्ण महल में रख दिया जाये। यह तो घटना का केवल प्रारंभ था। स्वर्ण के प्रति मोह जीवन का सत्य नहीं है। यह समृद्धि का भी सत्य नहीं है। उसकी अपनी उपयोगिता होती है, लेकिन सीमित मात्रा में ही। यदि इसके प्रति मोह अप्राकृतिक स्थिति तक बढ़ जाये, जैसा कि हम रावण में देखते हैं, तो वह हमारे जीवन को पूरी तरह जकड़कर उसे नष्ट कर देता है। श्रीराम सीता को स्वर्ण की इस अप्राकृतिक जकड़न से मुक्त करना चाहते थे। तो अब देखिए कि इसके लिए वे करते क्या हैं।
श्रीराम करते यह हैं कि सोने की इस लंका का दहन करवा देते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि आखिर इस तरह की अस्वाभाविक घटना की जरूरत ही क्या थी। सोना तो एक धातु है, जिसका जलना आसान नहीं होता। यह कोई लकड़ी का महल तो था नहीं कि थोड़ी सी आग दिखाई और धूं-धूं करके सब कुछ जल उठा। सोने को गलाने के लिए बहुत अधिक ताप चाहिए और तब भी वह जलेगा नहीं बल्कि गलेगा। सोने की लंका को जलाये बिना भी हनुमान का काम चल सकता था। लेकिन श्रीराम का तो नहीं चलता। शायद श्रीराम सीता का इस सत्य से अवगत कराना चाहते थे कि “हे, सीते जिस स्वर्ण से तुम सम्मोहित हो, वह इस तरह गलकर व्यर्थ चला जाता है। उसकी अहमियत कुछ विशेष नहीं है।”
श्रीराम जब किसी घटना का संयोजन करते हैं, तो उस घटना के छोटे-छोटे डिटेल्स पर भी ध्यान देते हैं। यदि वे चाहते तो सोने की लंका में वैसे भी आग लगवाई जा सकती थी। घरों में, महलों में, जंगलों में आग तो लगती ही रहती है। लेकिन यहाँ सोने की लंका में आग लगाई है हनुमान ने, जो एक वानर हैं। मुझे ऐसा लगता है कि एक वानर के हाथों रावण जैसे शक्तिशाली और समृद्ध शासक की स्वर्ण नगरी को जलाने की घटना के माध्यम से श्रीराम यह बताना चाहते थे कि सोने का अस्तित्व इतना अधिक तुच्छ है कि एक वानर उसे नष्ट कर सकता है।
अब चेतना की विशुद्धता के लिए इससे सुन्दर घटनाक्रम और इससे अधिक सूक्ष्म निरीक्षण भला और क्या हो सकता था।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।
मेरे प्रिय, मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि श्रीराम न केवल अपनी ही चेतना को विशुद्ध रखना चाहते थे, बल्कि अपने साथ के लोगों की चेतना को भी विशुद्ध करना चाहते थे। फिर सीता तो उनकी अर्द्धांगिनी ही थी; एक ऐसी अर्द्धांगिनी, जिसे उन्होंने मन ही मन चाहा था और अपने शौर्य के द्वारा पाया था। उनकी चेतना को तो विशुद्ध करना ही था। हो सकता है कि श्रीराम को यह लगा हो कि सीता के मन से अभी तक भी सोने का मोह गया नहीं है। इसलिये श्रीराम के लिए जरूरी हो गया था कि सीता के मन को सोने के इस मोह से मुक्त करें। समझाने से कोई समझता नहीं है। कितना भी उपदेश दे दिया जाये, कितने भी प्रवचन सुनाये जाएँ, कर्मकाण्ड और धर्मकाण्ड कराये जाएँ, लेकिन मर्म की बातें समझ में आती कहाँ है। यह सब तो अपने मन को छलावा और भुलावा देने का एक जरिया भर होता है। लेकिन घटनाओं में वह ताकत होती है, जो आदमी को बदल सकती है, बशर्ते कि वह आदमी आदमी हो, जड़ नहीं। तो राम ने सीता को समझाने-बुझाने के बजाय घटनाओं के माध्यम से बदलने का निर्णय लिया और नतीजा यह हुआ कि लंका का शासक रावण सीता का अपहरण करके ले गया।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि रावण बहुत शक्तिशाली था। यह भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि रावण स्वयंवर के माध्यम से सीता को पाना चाहता था और वहाँ पराजित होने के बावजूद सीता को पाने की उसकी इच्छा बची हुई थी, जिसे वह अपहरण के माध्यम से पूरी करता है। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह भी नहीं है कि रावण अपनी बहन सुर्पणखा के अपमान का बदला लेना चाहता था। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि रावण के पास एक ऐसा राजमहल है, जो पूरी तरह सोने का बना हुआ है। पूरी लंका सोने की थी। थी या नहीं, इससे हमारा कोई सरोकार नहीं है। मिथक ही सही, लेकिन यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि रावण की राजधानी लंका सोने की थी। राम की अयोध्या सोने की नहीं थी। न ही जनक की राजधानी सोनी की थी। लेकिन रावण की थी। तो ऐसा क्यों था? मेरी दृष्टि में ऐसा इसलिए था क्योंकि सीता का अपहरण करने के बाद उन्हें एक ऐसी जगह ले जाना था, जहाँ स्वर्ण ही स्वर्ण हो। यहाँ स्वर्ण मृग और सोने की लंका के बीच सीधा सा संबंध है। इसके माध्यम से श्रीराम शायद सीता को यह संदेश देना चाहते थे कि “हे सीते, तुम्हें तो केवल स्वर्ण मृग ही चाहिए था न। मैं वह स्वर्ण मृग तो नहीं दे सका, क्योंकि वह तो होता ही नहीं है। तुमने गलत मांग की थी। लेकिन मैं तुम्हें स्वर्ण तो दे ही सकता हूँ, इसलिए तुम जाओ और सोने के महल में ही रहो। इससे तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी।”
सीता को सीख देने का अर्थ यह नहीं था कि श्रीराम निष्ठुर हो गये थे या कि सीता के द्वारा स्वर्ण मृग मांगे जाने से उनसे विमुख हो गये थे। ऐसा वे कर ही नहीं सकते थे। वे तो सीता के सामने जीव और जगत के एक प्राकृतिक सत्य को रखना चाहते थे, ताकि सीता अपनी चेतना की विशुद्धता को प्राप्त कर सकें। इसलिए इस प्रयास का अंत केवल यह नहीं था कि सीता को स्वर्ण महल में रख दिया जाये। यह तो घटना का केवल प्रारंभ था। स्वर्ण के प्रति मोह जीवन का सत्य नहीं है। यह समृद्धि का भी सत्य नहीं है। उसकी अपनी उपयोगिता होती है, लेकिन सीमित मात्रा में ही। यदि इसके प्रति मोह अप्राकृतिक स्थिति तक बढ़ जाये, जैसा कि हम रावण में देखते हैं, तो वह हमारे जीवन को पूरी तरह जकड़कर उसे नष्ट कर देता है। श्रीराम सीता को स्वर्ण की इस अप्राकृतिक जकड़न से मुक्त करना चाहते थे। तो अब देखिए कि इसके लिए वे करते क्या हैं।
श्रीराम करते यह हैं कि सोने की इस लंका का दहन करवा देते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि आखिर इस तरह की अस्वाभाविक घटना की जरूरत ही क्या थी। सोना तो एक धातु है, जिसका जलना आसान नहीं होता। यह कोई लकड़ी का महल तो था नहीं कि थोड़ी सी आग दिखाई और धूं-धूं करके सब कुछ जल उठा। सोने को गलाने के लिए बहुत अधिक ताप चाहिए और तब भी वह जलेगा नहीं बल्कि गलेगा। सोने की लंका को जलाये बिना भी हनुमान का काम चल सकता था। लेकिन श्रीराम का तो नहीं चलता। शायद श्रीराम सीता का इस सत्य से अवगत कराना चाहते थे कि “हे, सीते जिस स्वर्ण से तुम सम्मोहित हो, वह इस तरह गलकर व्यर्थ चला जाता है। उसकी अहमियत कुछ विशेष नहीं है।”
श्रीराम जब किसी घटना का संयोजन करते हैं, तो उस घटना के छोटे-छोटे डिटेल्स पर भी ध्यान देते हैं। यदि वे चाहते तो सोने की लंका में वैसे भी आग लगवाई जा सकती थी। घरों में, महलों में, जंगलों में आग तो लगती ही रहती है। लेकिन यहाँ सोने की लंका में आग लगाई है हनुमान ने, जो एक वानर हैं। मुझे ऐसा लगता है कि एक वानर के हाथों रावण जैसे शक्तिशाली और समृद्ध शासक की स्वर्ण नगरी को जलाने की घटना के माध्यम से श्रीराम यह बताना चाहते थे कि सोने का अस्तित्व इतना अधिक तुच्छ है कि एक वानर उसे नष्ट कर सकता है।
अब चेतना की विशुद्धता के लिए इससे सुन्दर घटनाक्रम और इससे अधिक सूक्ष्म निरीक्षण भला और क्या हो सकता था।
ब्लॉग में प्रस्तुत अंश डॉ. विजय अग्रवाल की जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप भी बन सकते हैं राम” में से लिया गया है।
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