Dr. Vijay Agrawal

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स्वतंत्रता और आध्यात्म

स्वतंत्रता। यह बहुत खूबसूरत, बहुत जोरदार, बहुत वजनी, बहुत प्यारा और अद्भुत शक्ति से भरा हुआ शब्द है। सामान्य तौर पर हम सब स्वतंत्रता का राजनैतिक अर्थ ही लगाते हैं। राजनीतिशास्त्र में इसे पढ़ते हैं और देश की आजादी के रूप में इसका उपयोग करते हैं। लेकिन मुझे यह शक्तिशाली शब्द हमारे जीवन के केन्द्र का सबसे क्रांतिकारी और सबसे डायनामिक शब्द लगता है; इतना सक्रिय और गतिशील शब्द कि इसमें धर्म और अध्यात्म की झलक मिलने लगती है। आपको यह बात थोड़ी-सी ऊटपटांग-सी लग सकती है कि कहाँ स्वतंत्रता और कहाँ आध्यात्मिकता। लेकिन मुझे लगता है कि यदि अध्यात्म के केन्द्र में कोई तत्त्व हो सकता है, तो वह स्वतंत्रता ही है।

स्वतंत्रता का अर्थ है स्व का तंत्र यानी कि मेरी अपनी प्रणाली, मेरा अपना तरीका। इसी को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस रूप में कहा है कि ‘‘दूसरे के धर्म का पालन करने से बेहतर है स्वधर्म का पालन करते हुए नष्ट हो जाना।’’ यह स्वधर्म ही तो स्व का तंत्र है। गीता में कृष्ण का धर्म हिन्दू, मुसलमान, ईसाई का धर्म नहीं है, बल्कि यह प्रकृति का धर्म है। यह वह धर्म है, जो प्रकृति ने अपनी हर एक रचना को दिया हुआ है और प्रकृति की जितनी भी रचनाएं हैं, सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। यहाँ तक कि यदि आप एक ही पेड़ के दो आम एक ही समय में तोड़कर बारी-बारी से खायें, तो उनके भी स्वाद में आपको फर्क महसूस हो जाएगा, क्योंकि इन दोनों ही आमों का तंत्र अलग-अलग है, भले ही उनको रस पहुँचाने वाली जड़ें एक ही हैं और भले ही उन जड़ों को रस देने वाली ज़मीन भी एक ही है।

यहीं पर बात आती है स्वतंत्रता और अध्यात्म की। मैं अपनी प्रणाली के अनुसार काम करूँ, यह हर कोई चाहता है। लेकिन विडम्बना यह है कि दूसरा भी अपनी प्रणाली के अनुसार काम करे, यह कोई नहीं चाहता। हम दूसरों से हम उम्मीद करते हैं कि उसकी प्रणाली हमारे अनुसार हो। वह काम हमारे तरीके से करे और जैसे ही उससे हम यह अपेक्षा करने लगते हैं वैसे ही हमारी यह अपेक्षा धीरे-धीरे उसकी स्वतंत्रता का अपहरण करने लगती है। हम उस पर स्वंय को लादने लगते हैं। उसके तंत्र को कुचलना शुरू कर देते हैं, यानी कि हम उसके स्वधर्म को नष्ट कर देते हैं।

लेकिन मजेदार बात यह है कि ऐसा करके हम केवल उसके ही स्वधर्म को नष्ट नहीं करते बल्कि स्व के धर्म को भी नष्ट करते हैं। आपने यह जरूर महसूस किया होगा कि जब भी हम किसी दूसरे की स्वतंत्रता का अपहरण करते हैं, तो इस अपहरण करने की प्रक्रिया में कहीं-न-कहीं हम खुद की भी स्वतंत्रता का समर्पण करते हैं। छोटी-सी ही बात को ले लें और इस पर थोड़ी देर के लिए विचार करें ज्यादातर घरों में मेटसर्वेन्ट आती है। यह मेटसर्वेन्ट इसलिए रखते हैं ताकि हम अपने घर के कामकाज से फ्री होकर उस समय का इस्तेमाल अपनी मनपसन्द के किसी और काम के लिए कर सकें। लेकिन क्या आपने कभी इस बात का लेखा-जोखा लिया है कि सचमुच में ऐसा हो पा रहा है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस मेटसर्वेन्ट को रोजाना निर्देश देने में, उसका इंतजार करने में और उसकी देखभाल करने की प्रक्रिया में हम स्वयं ही उसके सर्वेन्ट बन गये हैं-एक लार्डसर्वेन्ट। हथकड़ी तो हथकड़ी ही होती है, फिर चाहे वह सोने की ही बनी हुई क्यों न हो। सर्वेन्ट तो सर्वेन्ट ही होता है फिर चाहे वह मेडसर्वेन्ट हो या लार्डसर्वेन्ट। इससे क्या फर्क पड़ता है। इसलिए अध्यात्म की शुरूआत ही स्वतंत्रता के इस बिन्दु से होती है कि दूसरों को स्वतंत्र करो, ताकि तुम खुद स्वतंत्र हो सको।

अध्यात्म का दूसरा चरण यह है कि तुम स्वयं स्वतंत्र हो, ताकि दूसरा कोई तुम्हें गुलाम न बना सके। इस ‘स्वतंत्र होवो’ का सम्बन्ध मानसिक स्वतंत्रता से है। इसका सम्बन्ध विचारों की स्वतंत्रता से है। इसका सम्बन्ध इस बात से है कि छोटापन छोड़ो। छोटे कमरे में घुटन होती है। छोटे कपड़े पहनने से कसमसाहट बढ़ती है। जहाँ भी छोटापन होगा। वहाँ परेशानी होगी। जहाँ छोटे विचार होंगे, वहाँ घुटन होगी। जहाँ घुटन होगी, वहाँ स्व का तंत्र काम कर ही नहीं सकता। तो ओछापन छोड़ो ताकि विचार स्वतंत्र हो सकें। लगने दो अपने विचारों में बड़ेपन के पंख, ताकि वह हमारे घर, हमारे नगर और यहाँ तक कि हमारे देश और दुनिया को छोड़कर ब्रह्माण्ड की खुलेआम सैर कर सके। छोटे कमरे में घुटन होती है। तोड़ो दिमाग की इस तिहाड़ जेल को, ताकि हमारी चेतना उन्मुक्त होकर ब्रह्माण्ड की चेतना से सम्पर्क करने लायक बन सके।

और इस स्वतंत्रता का तीसरा चरण है अध्यात्म की स्वतंत्रता। जब हम दूसरे चरण को पा लेते हैं, तब जागृत होती है आत्मा की शक्ति और आत्मा की शक्ति। के जागृत होने का मतलब ही है-आत्मा का उन्मुक्त हो जाना, इतना उन्मुक्त हो जाना कि उसमें जगह तो थोड़ी-सी ही दिखाई देती है, लेकिन वह होती बहुत ज्यादा है। कम्प्युटर की एक छोटी-सी चिप में कितनी मेमोरी आ जाती है, आप जानते हैं। इसी तरह जब हमारी आत्मा उन्मुक्त हो जाती है तो उसमें पूरे ब्रह्माण्ड के लिए जगह बननी शुरू हो जाती है। और जब ऐसा होने लगता है और हो जाता है, उसी क्षण मोक्ष की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। उसी समय हम मुक्त हो जाते हैं और हमें मुक्ति मिल जाती है। क्या मुक्ति का अर्थ भी स्वतंत्रता नहीं है?

नोट- यह लेख सबसे पहले नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है

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