अधिक तर्क-वितर्क करने यानी कि किसी भी मुद्दे पर बहुत अधिक सोच-विचार करने वालों में भी साहस के गुण की कमी देखी गई है। यहाँ मेरा आशय यह नहीं है कि जो कुछ आप करने जा रहे हैं, उसके बारे में सोच-विचार करें ही नहीं। करें, लेकिन एक सीमा तक यदि आप एक सीमा से आगे बढ़कर सोच-विचार कर रहे हैं, तो यह आपके इस झुकाव को दिखाता है कि आप साहस नहीं कर रहे हैं। वस्तुतः होता यह है कि अधिक सोचने से आपके सामने समस्याओं की परतें प्याज के छिलकों की तरह खुलने लगती हैं। तब आप इन सभी समस्याओं का समाधान चाहने लगते हैं, और अन्त में होता यही है कि ‘‘न नौ मन तेल जुटता है, और न ही राधा नाच पाती है।
इसके बारे में मुझे उस युवा महिला के जोश से भरे हुए दैदिप्यमान शब्द बहुत माकूल जान पड़ते हैं, जो मेंरी पत्नी क्षरा पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहे थे। पति के नौकरी में रहने के बावजूद पत्नी द्वारा नौकरी की तलाश रने पर मेरी पत्नी ने पूछा था कि ‘‘तब आप लोग मैनेज कैसे करेंगे।’’ उस उर्जस्वित महिला ने क्षण भर तक की देरी किये बिना ही तपाक से उत्तर दिया था – ‘‘मैडम, हम लोग इतना सोचते ही नहीं।’’ उस महिला के साहस का रहस्य उसके इस वाक्य में है।
मित्रों, मुझे यहाँ गलत न समझा जाये। मैं जब साहस की बात कर रहा हूँ, और बहुत अधिक सोचे-समझे बिना साहस कर लेने की बात कर रहा हूँ, तो यह साहस की बात है, दुस्साहस की नहीं। दुस्साहस गलत हो सकता है। यह गलत ही होता है। लेकिन साहस नहीं। दुस्साहस का अर्थ ही है-अविवेकपूर्ण कदम यह ‘आ साँड़ मुझे ढूस’’ जैसी बात है। इससे कुछ होना-जाना नहीं है, सिवाय अपने नुकसान के।
आप, मैं जिन दुस्साहिक सफलताओं के किस्से सुनते हैं, वे हमें उनके दुसहिक कदम लगते हैं। लेकिन जिन्होंने ये कदम बढ़ाये थे, उनके लिये यह दुस्साहस नहीं बल्कि साहस था। उन्होंने इस पर सोचा था। उन्होंने अपनी क्षमता का मूल्याँकन किया था। ये लोग सच्चे आत्मविश्वास से भरे हुये लोग थे। इन्होंने अपनी आन्तरिक शक्ति को; छुपी हुई शक्ति को, अपनी भावनात्मक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करके उनका सम्मिलन कर दिया था। इस कारण वे ऐसी अद्भूत शक्ति के स्वामी हो गये थे कि वे अद्भूत कार्य कर सके। उनके लिये वह साहस ही था। हाँ, जब हम उनके कार्यों का मूल्याँकन अपनी क्षमता की कसौटी पर करते हैं, तब ज़रूर हमें ये लोग दुस्साहसी, सनकी, जिनीयस और कुछ-कुछ तो पागल से भी लगते हैं।
आप यह कतई न समझें कि इन सफल लोगों के सामने जिन्दगी ने सारी सुविधायें एक तस्तरी में सजाकर रख दी थी। दोस्तों, ये सब, विश्वास कीजिये कि ये सभी बिल्कुल हमारी ही तरह थे। इनके गर्भ में आने पर न तो इनकी माताओं को स्वप्न में कोई अलौकिक दृश्य दिखाई दिया था, और न ही इनके जन्म लेने पर धरती पर अतिरिक्त प्रकाश का पूँज बिखरा हुआ था। सब कुछ चुपचाप हमेशा की तरह वैसा ही हुआ था, जैसा कि लगभग हर एक के साथ ही होता है। कुछ भी विशिष्ट नहीं था इनमें। यदि कुछ था भी, जो हमें उनकी जीवनियों में पढ़ने और सुनने को मिलता है, विश्वास कीजिये कि वह आप में भी है। लेकिन अभी उसकी चर्चा इसलिये नहीं हो रही है, क्योंकि अभी आप कुछ नहीं हैं। कुछ हो जाइये। फिर देखिये कि लोग कैसे आपके अवगुणों को गुणों की तरह तथा कमजोरियों को ताकत की तरह लेने लगेंगे। क्या आपने स्टार टी.वी. पर आने वाला कार्यक्रम ‘‘जीना इसी का नाम है’’, देखा है? या फिर कभी ‘हिस्ट्री’ चैनल पर आने वाले कार्यक्रम ‘‘बायोग्राफी’’ को देखिये। तब शायद आपको मेरी बात पर यकीन हो जाये।
इन लोगों ने कुछ अतिरिक्त नहीं किया है। इन लोगों ने कुछ भी विशेष नहीं किया है, सिवाय इसके कि इन्होंने साहस जुटा लिया। लेकिन क्या साहस जुटा लेना कुछ विशेष करना नहीं होता है? इससे अधिक विशेष भला और क्या हो सकता है? जब ये लोग इस तरह के अविश्वसनीय कदम उठाते हुये दिखाई देते हैं, तो लोेग इन्हें दुस्साहसी, सनकी या पागल कुछ भी कह देते हैं। जब ये ही लोग सफल हो जाते हैं, तो हम अपना सम्बोधन बदलकर इन्हें ‘जिनीयस’ कहने लगते हैं।
आइये, अब हम यहाँ कुछ उन गुणों और कारणों को जानने की कोशिश करें, जिनकी वजह से ये निहायत ही साधारण से लोग इतने असाधारण जान पड़ने लगते हैं।
मेरी इस बात पर अविश्वास करने का आपके पास कोई बहुत पुख्ता आधार नहीं है कि जब इन सफल लोगों ने अपनी यात्रा की शुरूआत की थी, तब इनमें से एक भी ऐसा नहीं था, जिन्हें इस बात का पक्का भरोसा था कि वे सफल हो ही जायेंगे। उनके साथ भी सब कुछ वैसा ही था, जैसा कि अभी आपके साथ होता है; मसलन-घबराहट, निाराशा, ऊब, परेशानी, झुंझलाहट, छोड़-छाड़कर उससे अलग हो जाने की इच्छा, आशंका, लोगों के ताने, लोगों का असहयोग आदि-आदि। गौतम बुद्ध ने जब अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था, तो उनको सुनने वाले केवल पाँच लोग थे। चीन में साम्यवादी क्रान्ति करने वाले माओ त्से तुंग की स्थिति बुद्ध से थोड़ी बेहतर थी, क्योंकि उन्होंने जब अपनी पार्टी बनाई तो उसके सदस्यों की संख्या बारह हो गई थी। कया आप दावा कर सकते हैं कि तेनजिंग नोर्के एवरेस्ट पर पहुँचता ही पहुँचता, क्योंकि इससे पहले असफल होने के कारण उसने पर्वतारोहरण का विचार त्याग ही दिया था।
किसी को भरोसा नहीं होता कि क्या होगा। लेकिन इन्हें एक बात का भरोसा ज़रूर होता है, जो हम लोगों में नहीं होता। वह यह कि अपने पर भरोसा, अपने किये पर भरोसा। इनका सीधा सा सिद्धान्त यह होता है कि ‘‘आखिर, मुझे कुछ न कुछ तो करना ही है। तो फिर मैं इसे ही क्यों न करूं।’’ बस, इसी साधारण से किन्तु महान सिद्धान्त की डोर पकड़कर वे जिन्दगी की खाई में छलांग देते हैं। इससे अधिक और कुछ भी नहीं। यदि आप इससे इनकी सफलता के कारण पूछेंगे, तो ये आपको मैनेजमेंट की थ्योरी नहीं बतायेंगे। ये जानते ही नहीं इस थ्योरी को। ये लोग इस थ्योरियों के हिसाब से काम नहीं करते, बल्कि ये जिस तरह से काम करते हैं, उनसे थ्योरियाँ बनाई जाती हैं। ये लोग तो आपको केवल यह बता सकेंगे कि मने ये-ये किया। और आप पायेंगे कि इन्होंने जो-जो किया, उनमें इनके ‘साहस करने’ का सबसे प्रमुख स्थान था। यदि आप साहस ही नहीं करेंगे, तो फिर वह पहला कदम उठा ही कैसे पायेंगे, जो कहीं भी पहँुचने के लिये, फिर चाहे वह एक फर्लांग हो, या एक हजार मील, जरूरी है।
अपने बारे में कोई भी फैसला करने से पहले आप खूद का टटोलिये कि क्या यह गुण आपके पास भी है। वैसे यदि आप इस बारे में मुझसे पूछेंगे, हांलाकि यहाँ मैं बिना आपके पूछे ही बतताने की धृष्टता कर रहा हूँ, क्योंकि मुझे यह धृष्टता करनी ही चाहिये, कि आपमें वह गुण मौजूद है। सभी में यह गुण ठीक वैसे ही मौजूद रहता है, जैसे पत्थर के टुकड़ों में आग की चिंगारी। लेकिन यह दिखाई नहीं देती। इसे देखना पड़ता है, दिखाना पड़ता है। और देखने और दिखाने के लिये इसे रगड़ना पड़ता है-दूसरे पत्थर से। ध्यान दीजिये-इसे रगड़ना पड़ता है, दूसरे पत्थर से, रेशमी कपड़े या रूई के गोले से नहीं। ठोस-मजबूत और कड़े पत्थर से टकराना पड़ता है। कुछ देर तक रगड़ते रहना पड़ता है। तब कहीं जाकर इस चकमक से चिंगारी के दीदार हो पाते हैं, मेरे दोस्तों। यह संघर्ष की देन है। साहस संघर्ष की पुत्री होती है। नर्म गद्दों के ऊपर कूदकर आप अपने अंदर सोये हुये साहस के गुण को जगा नहीं सकते। इसके लिये तो आपको अपने जहाज का लंगर खोलकर हाथ में पतवार लिये हवा की गति का सहारा लेकर समुद्र के सीने पर चल देना होगा। ज्यादा सोचेंगे, ज्यादा कलकुलेट करेंगे, तो चल ही नहीं पायेंगे। हिन्दी के साहित्यकार डॉ०धर्मवीर भारती ने अपने गीत-नाट्य ‘अंधा युग’ में कृष्ण के मुख से एक बहुत ही अच्छा वाक्य कहलाया है –
भविष्य नहीं है पूर्व निर्धारित
इसे हर क्षण मनुष्य बनाता-मिटाता है।
दोस्तों, विशेषकर मेरे अज़ीज युवा दोस्तों, बीज कितना भी मजबूत और दमदार क्यों न हो, जब तक वह धरती को फाड़कर अपना सर धरती से बाहर निकालने का साहस नहीं करेगा, तब तक उसके अंकूरित होने की सम्भावना बन ही नहीं सकती। साहस उसे ही जुटाना होगा। हाँ, नमी उसके इस काम में उसके लिए मददगार हो सकती है।
मैं समझता हूँ कि हम सबके लिये यह नमी है-आस्था, विश्वास। मैंने अक्सर पाया है कि जिन लोगों में यह भाव जितना अधिक होता है, वे अपनी जिन्दगी में उतना ही अधिक जोखिम उठाने का साहस कर सके हैं; फिर चाहे यह आस्था स्वयं के उद्देश्यों और स्वयं के प्रति ही क्यों न हो। निश्चित रूप से ज्यादातर मामलों में यह आस्था किसी अदृश्य सत्ता के प्रति पाई गई है। यह अदृश्य सत्ता कोई भी हो सकती है-ईश्वर, प्रकृति,रहस्य या यूं ही अपनी चेतना में बना ली गई कोई भी तस्वीर। जब आपको लगता है, आपसे भी अधिक शक्तिशाली एक कोई ऐसा है, जो आपको उस समय अपनी गोद में ले लेगा, जब आप गिरने लगेंगे, तब स्वाभाविक है कि आप गिरने का जोखिम मोल ले सकते हैं। विश्वास कीजिये कि भले ही आस्था झूठी ही क्यों न हो (जैसा कि कुछ अतिरिक्त तर्कवादी मानते हैं), लेकन उसके द्वारा मिलने वाली मदद झूठी नहीं होती। यह सच्ची होती है-24 कैरेट सोने की तरह।
वैसे तो इस बारे में बहुत से और भी गुण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन मैं उतने विस्तार से जाने के पक्ष में नहीं हूँ। साहस के बारे में जो मूलभूत बातें हो सकती थीं, उनका मैंने यहाँ जिक्र किया है। और अपनी इस बात को मैं इन दो पंक्तियों के साथ विराम देने की इजाज़त चाहूँगा कि –
खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तहरीर से पहले,
खुदा बन्दे से ये पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।