“पापा, ऐसी जगह पर आकर लगता है, कि सच में हम क्या हैं और कितने छोटे हैं।” मैंने कहा, “हां, ऐसी जगहों की देन केवल यही नहीं होती कि उसने तुमको दिया कितना है, बल्कि इससे भी कहीं अधिक यह होती है कि तुमने लिया क्या है। ज्ञान का भी महत्व नहीं होता कि तुम इस जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल से कितना नॉलेज बटोकर ले जा रहे हो। इससे भी गई गुना ज्यादा महत्व इस बात का होता है कि तुमने यहां रहकर महसूस क्या-क्या किया है। जैसे कि तुमने महसूस किया कि तुम सच में हो क्या, अन्यथा तो तुम अपने छोटे से स्वनिर्मित साम्राज्य के सम्राट बनकर पूरी जिंदगी इसी गलतफहमी में गुजार देते।” जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल के लंच के समय हम लोगों को इतना वक्त मिल गया था कि खुलकर कुछ बातें की जा सकती थीं।
“देखो, अभी तुमने रस्किन बान्ड को देखा और सुना। उनके बारे में तुम क्या कहना चाहोगे मेरे बेटे।” मैंने केवल इतना कहकर अपनी बात खत्म कर दी। “ही इज ग्रेट।” मैंने उसे छेड़ा, “तुम्हें उनकी किस बात में ग्रेटनेस दिखाई दी।” वह बोला “वे इतने सरल होंगे, इतने सहज होंगे, यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। एकदम बच्चों की तरह। स्वेटर भी जो वे पहनकर आए थे, न जाने कब का रहा होगा।” उसकी इस लाइन के पूरा होती ही, मैंने हस्तक्षेप किया, “वैसे विनोट कुमार शुक्ल या पैट्रिक फ्रेंच के बारे में तुम्हारा ख्याल क्या है।” करीब एक मिनट रुककर उसने कहा, “कितनी सरल भाषा में उन्होंने कितनी गजब की बात कह दी थी। वे तो बिना मोजे के ही जूते पहनकर आ गए थे। और फ्रेंच पैट्रिक का तो कहना की क्या था। ऐसा लग रहा था कि कोई प्यारा सा बच्चा अपनी खुशियाँ का जशन मना रहा हो।” अगले प्रोग्राम का समय हो चला था।
इसलिए मैंने इस बातचीत को यहीं खत्म करना ठीक समझा। तो इसका मतलब यह हुआ कि “सरलता में ही महानता होती है। साधारणता में ही असाधारणता होती है। यदि तम्हें ऊपर उड़ना है तो खुद को असाधारण माने जाने के बोझ से मुक्त करना होगा। मैं अपने इस निर्णय पर खुश था कि “बेटे, तुम्हें भी मेरे साथ साहित्य के उत्सव में चलना है।”