8 सितम्बर सन् 2008 और इसके ठीक लगभग सवा छः महिने बाद 17 मार्च सन् 2009 की तारीख। ये दोनों तारीखें अलग से न तो खेल मंत्रालय के रोजनामने में दर्ज हैं, और न ही भारत में बवाल मचाकर पिछले साल सम्पन्न हुए कामनवेल्थ गेम्स के इतिहास में। लेकिन हैं ये दोनों तिथियाँ बेहद महत्वपूर्ण। भले ही इनकी ओर अब तक किसी ने अलग से ध्यान नहीं दिया। मुझे नहीं लगता कि किसी की कुर्बानी की तिथि से भी बढ़कर कोई अन्य अहम् तिथि हो सकती है। जी हाँ। आप सही सोच रहे हैं। ये दोनों तारीखें ऐसी ही तारीखें हैं। जिनकी ओर अक्सर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा जाता।
तो पहली तिथि है 8 सितम्बर सन् 2008 की। इसके अगले दिन की सुबह के अखबार में एक छोटी सी यह खबर छपी थी कि “खेल सचिव श्री एस. के. अरोड़ा का कल दिल्ली में ह्नदय गति रुक जाने से निधन हो गया। वे आन्ध्रप्रदेष कैडर के सन् 1971 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी थे।””
अब अगली तिथि 17 मार्च सन् 2009 की। 18 मार्च के अखबार में इस खबर ने पहली खबर की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा जगह हासिल कर ली थी। इस खबर का कहना था कि ‘खेल सचिव श्री सुधीरनाथ का कल सुबह “तगड़े हार्ट अटैक” से देहांत हो गया।’ श्री नाथ मध्य प्रदेष कैडर के सन् 1974 बैच के आई.ए.एस. अफसर थे। उनकी पत्नी श्रीमती सुषमानाथ भी आई.ए.एस. हैं। श्री सुधीर नाथ इससे पहले इन्फोर्समेन्ट निदेषक थे। जहाँ उन्होंने विवादास्पद ‘ऑयल फार फूड’ घपले की जॉच की थी। रक्षा मंत्रालय एवं राष्ट्रपति सचिवालय में भी उन्होंने काम किया था।”
मैं जानता हूँ कि फिलहाल आपको ये दोनों मौतें सामान्य रूप से होने वाली मौतों से अधिक कुछ मालूम नहीं पड़ रही होंगी। और चूंकि ये दोनों मृत्य व्यक्ति कोई नेता न होकर महज ब्यूरोक्रट्स थे। इसलिए इनकी मृत्यु के बारे में चर्चा करना भी जरूरी नहीं था। एक दिन की वह रस्म अदायगी जरूर हो गई। जो लोकलाज के कारण निभानी ही पड़ती है। यह रस्म अदायगी थी- खेल मंत्री के द्वारा दोनों की मृत्यु के प्रति शोक व्यक्त करते हुए परिवार को संवेदनायें देना। चूंकि फिलहाल कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियाँ जोरों पर थीं। इसलिए इसके कर्णधार कालमाड़ी जी भी संवेदना व्यक्त करने में पीछे नहीं रहे। इसके लिए उनका बहुत-बहुत धन्यवाद।
अब आते हैं हम कुछ उन मुद्दों पर। जो गौर किये जाने की माँग कर रहे हैं। श्री एस.के. अरोरा जी को मैं व्यक्तिगत रूप से ज्यादा नहीं जानता। सिवाय इतने के कि जब मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत था, तब पहले तो वे मेरे अतिरिक्त सचिव थे, बाद में सचिव बने। उनकी छवि एक ईमानदार एवं संवेदनषील अफसर की थी। कुछ मिटिंग्स में मुझे उन्हें व्यक्तिगत रूप से सुनने और बातचीत करने का मौका भी मिला था। उनसे भी मेरी इसी धारणा की पुष्टि हुई, जो मैंने उनके बारे में बना रखी थी।
जहाँ तक सुधीरनाथ जी का सवाल है, वे जहाँ गजब के अफसर थे, वहीं उससे भी गजब के इंसान भी थे। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि राष्ट्रपति भवन में (डॉ. शंकरदयाल शर्मा के कार्यकाल में) मुझे उनके अधीन काम करने का मौका मिला। और इसके बाद, तब भी मैं उनके काफी नजदीक रहा, जब वे भोपाल आ गये थे। क्योंकि तब मैं भी भोपाल आ गया था। ड्रायवर और चपरासी से लेकर ऊपर तक का कोई भी एक ऐसा आदमी आज तक मुझे नहीं मिला, जिसने उनकी निष्ठा पर, उनकी ईमानदारी पर सांकेतिक रूप तक से भी उंगली उठाई हो। वे बेहद कर्तव्यनिष्ठ, अत्यंत कुषल, बहुत अधिक विनम्र एवं सहज-सरल अधिकारी थे। काष! कि अधिकारियों की यह जमात उन्हें अपने आदर्ष के रूप में अपना पाती। खैर…।
तो इन दोनों अफसरों की इन पृष्ठभूमियों में यदि हम इनके इंतकालों को देखें, तो मन में प्रष्न के कुछ बुलबुले कुलबुलाने लगते हैं। प्रष्न का पहला बुलबुला तो यह है कि इन दोनों अधिकारियों की मृत्यु हार्ट अटैक से हुई। दूसरा बुलबुला यह है कि ये दोनों खेल मंत्रालय में ही सचिव थे। तीसरा यह कि ये दोनों आईएएस अपनी ईमानदारी के लिए‘‘बदनाम’ जैसे थे। चौथा यह कि इन दोनों की मृत्यु क्रमषः हुई, यानी कि एक के बाद दूसरे की। पाँचवा यह कि इस दौरान भारत में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियाँ अपने शबाब पर थी और इन दोनों को इस मंत्रालय में भेजा ही इनकी दक्षता और निष्ठा के कारण गया था, ताकि सब कुछ ठीक-ठाक से निपट सके। छठा और अंतिम प्रष्न यह है कि मृत्यु की इन घटनाओं के बारे में संदेह उपजा ही तब, जब कामनवेल्थ गेम्स के घोटालों के पिटारे एक-एक करके खुलने लगे।
तो कुल मिलाकर यहाँ यह एक विषाल, बहुत महत्वपूर्ण और एक जायज प्रष्न यह उठ खड़ा होता है कि क्या इन दोनों अफसरों की मृत्यु के पीछे कोई ऐसा जबर्दस्त और ताकतवर दबाव काम कर रहा था, जिसे बर्दास्त कर पाना इनके लिए मुष्किल हो गया, और ये ‘मैसिव हार्ट अटैक’ के षिकार हो गये। ये झूकने को तैयार नहीं हुए। तने रहे, और अंत में टूटकर बिखर गये। हमारे पास इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि क्या हुआ था, और क्या नहीं हुआ होगा। लेकिन कॉमनवेल्थ गेम्स का स्कैण्डल जिस विभत्स रूप में देष के सामने आया है, उसे किसी भी उस उच्चतम अधिकारी के लिए सह पाना आसान नहीं था, जो स्वयं इसका हिस्सा न होने के बावजूद यह नहीं कह सकता कि “मैं इसमें शामिल नहीं हूं।” आखिर, सचिव मंत्रालय का प्रषासकीय मुखिया होता है, और वह मंत्री का सचिव न होकर मंत्रालय का सचिव होता है। वैसे मैं यहाँ यह भी बताना चाहूँगा कि जहाँ तक सुधीरनाथ जी की बात है, वे पूरी तरह सोलहों आने स्वस्थ थे। चुस्त-दुरुस्त थे। मस्त रहते थे। कोई भी व्यसन उनके पास तक फटक नहीं पाया था। ऐसा एक दिन भी नहीं होता था कि वे सुबह की सैर पर न जायें। यहाँ तक कि जीवन की अंतिम साँस भी उन्होंने सुबह की सैर से लौटने के बाद ही ली थी। हाँ, प्रकृति ने, ईष्वर ने इन दोनों अफसरों को वह दिल नहीं दिया था कि आँखों के सामने द्रोपदी का चीरहरण होते देखकर मौन रहने की मजबूरी के बावजूद हृदय सही सलामत रह सके। हृदय ने जवाब दे दिया, क्योंकि कभी-कभी रीढ़ की हड्डी का मजबूत होना दिल पर भारी पड़ जाता है।
भ्रष्टाचार की नाप-तौल हम अक्सर आँकड़ों में करते हैं। एक लाख छियत्तर हजार करोड़ रुपये। यह रकम दिखाई देती है। लेकिन यही भ्रष्टाचार जब इस तरह की जानें ले लेती है, जब वह हमसे हमारे योग्य सपूत छीन लेती है, तब वे नुकसान हमारे खाते के आँकड़ों में जुड़ नहीं पाते। हम यह नहीं भूल सकते कि ऐसे लोगों की मृत्यु महज किसी के पिता और किसी के पति की ही मौत नहीं होती है, बल्कि भविष्य की एक संभावना की मौत होती है। और यह भविष्य होता है समाज का, देष का। इससे भी कहीं अधिक ऐसी मौतें आदमी के ईमान की मौत होती है। और तब जीने के लिए कुछ भी नहीं रह जाता, क्योंकि इनकी भरपाई नहीं की जा सकती, कभी भी नहीं।
इन दोनों अधिकारियों को मेरी हार्दिक श्रंद्धाजलियाँ। भ्रष्टाचार की कुत्सित डायन अपनी तरह से नर की बली लेती है। किसानों की आत्महत्याओं के बारे में आपके ख्याल क्या हैं?
नोट- यह लेख सबसे पहले दैनिक-जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हो चुका है