लगभग बीस सालों के बाद गया था मैं अपने गाँव चन्द्रमेढ़ा, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर से मात्र पचास किलोमीटर की दूरी पर है। जिस कच्चे स्कूल में मैं पढ़ता था, वहाँ उस दिन भी बच्चे पढ़ रहे थे, किन्तु उस समय का जवान स्कूल आज दमें के रोग से ग्रस्त बूढ़ा स्कूल नजर आ रहा था। हाँ, इतना जरूर था कि इस स्कूल के ठीक सामने पंचायत सचिवालय नामक एक तथाकथित पक्का मकान जरूर बन गया था, जो नया होने के अहम् में इस पुराने स्कूल का मुँह चिढ़ा रहा था, यह भूलकर कि हिन्दुस्तान में सरकारी मकानों की औसत उम्र बहुत कम होती है।
बीच-बीच में बिजली के खंभों के खड़े हो जाने के कारण फुटबाल का विषाल मैदान बौना होकर हाँफता सा लग रहा था। बिजली के सफेद लम्बे-लम्बे झबराये खंभों में इतनी ताकत नहीं दिखी कि वे बीत्ता भर के लालटेनों को परास्त कर सकें, क्योंकि अभी भी चन्द्रमेढ़ा गाँव अंधेरे का मुकाबला लालटेन और ढिबरी के हथियारों से ही कर रहा था। कीचड़ के बीच में शान से खड़े ‘न’ आकार के हैंडपंप ने अपने ही पड़ोसी कुएँ को ‘आउटडेटेड’ करके अब गर्मी के दिनों में गाँव वालों के साथ आँख मिचौली खेलना शुरू कर दिया था। अस्पताल और डाकघर के पक्के भवन ‘कोमा’ की स्थिति में ‘सघन चिकित्सा कक्ष’ (आई.सी.यू.) में किसी तरह साँस लेते हुए अपने चिकित्सकीय मृत्यु (क्लीनिकल डैथ) की घोषणा की प्रतीक्षा कर रहे थे और मेरा अपना पुष्तैनी विषाल मकान, जहाँ पिछले 15 सालों से कोई नहीं रहा था, मलबे के ढेर में तब्दील होकर एक ‘आदर्ष सार्वजनिक शौचालय’ बन गया था।
डूबते हुए सूरज को अपनी शाखों में उलझाकर उसे डूबने से रोकने के लिए रोज प्रयास करने वाला पष्चिम दिषा में गाँव की सरहद पर खड़ा पीपल का वह पेड़ निर्वाण को प्राप्त हो गया था, जो ग्राम चन्द्रमेढ़ा की पताका और पहचान दोनों ही था। सामन्तीय निवास को घेरे रहने वाली दीवारें ध्वस्त हो चुकी थीं, और मूल भवन की दीवारों पर बरगद, आम, पीपल और नीम जैसे वृक्षों का अनाधिकार प्रवेष प्रारंभ हो चुका था। जमीदारों को अब अपना अधिकांष समय अंबिकापुर शहर में गुजारना अधिक सुविधाजनक लग रहा था।
आधा किलो चावल का भात, सौ ग्राम अरहर की दाल तथा लगभग 150-200 ग्राम आलू की सब्जी का लंच करके बिना डकार लिए पचास किलो वजन को फूलों की शाख की तरह कंधे पर रखकर दस किलोमीटर तक ले जाने और ले आने वाला 40 वर्षीय विष्वनाथ पिचके गालों, धँसी आँखों और लगभग गायब हो गये पेट वाले शरीर के साथ खड़ा होकर एक ऐसे पेट दर्द की षिकायत कर रहा था, जो उसकी जान लेकर ही जाएगा। जंगलों के बीच भादों की अमावस में भी रास्ता ढूँढकर जड़ी-बूटी लेकर आ जाने वाले गंगाराम की एक आँख तो बिल्कुल ही खराब हो चुकी थी, और दूसरी कभी भी हो सकती थी। पाँच सालों में छः पत्नियाँ बनाने और छोड़ते चले जाने का ‘ग्राम्य रिकार्ड’ बनाने वाला हीरो रज्जु दाँत टूटने और कंधे तथा कमर के कुछ-कुछ झुक जाने के कारण पहचान की सीमा से परे चले गये थे।
कुल मिलाकर यह कि बीस वर्ष पहले का दौड़ता हुआ गाँव चन्द्रमेढ़ा बीस साल बाद आज हाँफ रहा था। बीस साल पहले का नाचता हुआ गाँव आज लक्ष्मण मूर्च्छा की स्थिति में था। बीस वर्ष पहले का गाता हुआ गाँव आज रो रहा था।
इसके बावजूद उसे किसी से कोई षिकायत नहीं थी। वह मरना नहीं चाहता। सब कुछ को भाग्य का विधान मानकर वह जीवत रहना चाहता है। ‘जीवित रहने’ के लिए उसने दो नायाब तरीके ढूँढ निकाले हैं। उसे जब पैसों की जरूरत होती है, तब वह जुआ खेलने लगता है। और जब उसे खुषी की जरूरत महसूस होती है, तब शराब पीने लगता है। गाँव में पीने के पानी की कमी है, लेकिन पीने के शराब की कमी कभी नहीं हुई, ऐसा गाँव वालों का कहना है।
बीस वर्ष पहले का नौकर झगरू अभी भी नौकर ही है, लेकिन इस हालत में नहीं कि रोज काम कर सके। चालीस वर्ष का विष्वनाथ टूटकर बिखर चुका है। इस्माइल दर्जी के खाने के लाले पड़े हुए हैं, क्योंकि इस नये जमाने में कोई उनसे कपड़े सिलवाना ही नहीं चाहता। चारागाह के अभाव में टनटन महतो को भैंस पालने का धंधा छोड़ना पड़ गया। षिवधन के बनाये जूते अब कोई नहीं खीरदता, जबकि उसके दादा अमान के बनाये जूतों की उस जमाने में तूती बोलती थी।
कुल मिलाकर यह दिल्ली नामक महानगर में ग्रामीण विकास संबंधी अनेक सम्मेलनों में भारत के गाँवों की जो सुनहरी तस्वीर सुनने को मिली थीं, वह मेरे अपने गाँव से एकबारगी नदारद थी। इसका इतिहास तो रोम के पतन का इतिहास जैसा मालूम पड़ रहा था। मित्रों, यही है अपने-गाँव पर गद्य में लिखा गया मेरा यह एक शोक गीत।