हांलाकि हमारे यहाँ आम लोगों के बीच दो ही नवरात्री के दो ही उत्सव अधिक प्रसिद्ध हैं, लेकिन हैं ये कुल पाँच। एक नवरात्री सितम्बर-अक्टूवर माह में आती है, और दूसरी मार्च-अप्रैल में। ठंड के मौसम की शुरूआत में मनाये जाने वाली नवरात्री को, जहाँ महानवरात्री कहा जाता है, वहीगर्मी की शुरुआत में मनाये जाने वाली नवरात्री को वसंत नवरात्री। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो जाता है, यह एक ऐसा उत्सव है, जो नौ रात्रियों तक चलता रहता है। यहाँ सोचने-विचारने की बात यह है कि ये नवरात्री क्यों है, नौ दिवस क्यों नहीं, जैसा कि ज्यादातर धर्मिक उत्सवों के साथ है। बताये इसके कि मैं अभी मनाये जा रहे वसंत नवरात्री की कथा का उल्लेख करूं, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम इस उत्सव में निहित उन विभिन्न उद्देष्यों को समझने और पकड़ने की कोषिष करें, जो भारतीय मनीषा की अपनी अनोखी विषिष्टता रही है। अनोखी इस मायने में कि उसने चाहे मूर्तियाँ बनाई हों, या अनुष्ठान बनाये हों, या फिर लोकजीवन की कोई परम्परा ही क्यों न स्थापित की हो, उसके पीछे उसकी बहुत ही सोची-समझी गहरी दृष्टि रही है, और उस दृष्टि का जुड़ाव सीधे-सीधे प्रकृति से रहा है मनुष्य की भौतिक समृद्धि से रहा है, और साथ ही उसके आध्यात्मिक उत्थान से भी रहा है। यह एक वैज्ञानिक एवं सम्पूर्ण दृष्टि रही है। भारतीय दर्षन जीवन के हर पहलू को इस रूप में लेती है कि हमारे जीवन को पोष वाली और उसकी रक्षा करने वाली छोटी-बड़ी सारी भौतिक घटनाओं का एक दिव्य रूप भी होता है। यानी कि वे भौतिक होने के साथ-साथ दिव्य भी होती हैं। इसीलिए हमारे यहाँ जन्म, नामकरण, विवाह, यहाँ तक कि मृत्यु तक की घटनाओं के लिए ऐसे संस्कारों और ऐसे अनुष्ठानों का विधान किया गया है कि वे इस धरती पर घटने के साथ-साथ स्वयं को ब्रह्माण्ड से जोड़ लेती हैं। फिर नवरात्री तो अपने आप में शुद्धतः एक आध्यात्मिक उत्सव ही है।
भारतीय दर्षन यदि चाहे तो, और उसे चाहना भी चाहिए कि वह इस बात के लिए गर्व कर सकता है कि उसने माँ दुर्गा के माध्यम से नारी-शक्ति को जितना अधिक महत्व दिया है, उतना दुनिया के किसी भी देष ने नहीं। न तो महाषिवरात्री नौ दिन मनाई जाती है, न कृष्ण जन्माष्टमी। यहाँ तक कि इस नवरात्री के अंतिम दिन के समापन के रूप में ही रामनवमी मना ली जाती है। तो क्या इसका कोई आषय है? जी हाँ, इसका आषय है, और बहुत स्पष्ट तथा व्यावहारिक आषय है कि नारी मूलतः शक्ति है, ऊर्जा है। वह कॉस्मिक एनर्जी है। यह एक ऐसी एनर्जी है, जिसके बिना न तो संरचना की आषा की जा सकती, न ही पोषण की, न ही रक्षा की, और न ही आनंद की। यह बात बहुत रोचक और ध्यान देने योग्य है कि आठ दिन तक देवी की आराधना करने के बाद नौवें दिन राम के जन्म के रूप में रामनवमी आती है। और महानवरात्री में नौ दिन तक देवी की आराधना करने के बाद दसवें दिन राम उस शक्ति को प्राप्त कर पाते हैं, जिसके दम पर वे रावण का वध करते हैं, जिसे हम दषहरा के रूप में मनाते हैं। यानी कि इन दोनों नवरात्रियों के अंत राम से जुड़े हैं, एक का रचना से तो दूसरे का रक्षा से। रावण का वध करके सीता को मुक्त कराना मूलतः एक आततायी के नियंत्रण से प्रकृति को ही मुक्त कराना था, क्योंकि सीता श्रीराम की पत्नी के साथ-साथ पृथ्वी की पुत्री भी तो थीं।
मुझे यह बात अत्यंत विलक्षण लगती है कि नवरात्री के इन नौ दिनों में देवी के एक ही स्परूप की आराधना न होकर नौ अलग-अलग स्वरूपों की आराधना होती हैं। क्या किसी भारतीय देव को यह अवसर मिल सका है? नहीं। सच यही है कि शक्ति या ऊर्जा में यही क्षमता होती है कि वह स्वयं को अवसर के अनुकूल भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त कर सके। माँ, जो जननी है, जो हम सबकी ही नहीं, बल्कि राम और कृष्ण तक की जननी है, स्वयं को जिन अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त करती है, उसकी शुरुआत होती है दुर्गा के रूप में। माँ दुर्गा, जो अगम्य है, और जिसने लगातार नौ दिन और नौ रात तक युद्ध करके महिषासुर का वध किया था। यह उसके रक्षक का रूप है, लेकिन सौम्य रूप, जिन्हें हम आगे रक्षक के रूप में रौद्र रूप में भी पाते हैं। शक्ति के इस रूप को हमारी मनीषा ने नाम दिया काली का। इस रूप को हम दूसरे दिन पूजते हैं। तीसरे दिन यह माँ सम्पूर्ण विष्व की माँ के रूप में पूजी जाती हैं, एक ऐसे रूप में, जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है। तभी तो इन्हें कहा गया अम्बा या जगदम्बा। और चौथे दिन यही जगदम्बा अन्नपूर्णा का रूप ले लेती हैं, ताकि अपने सृजित जगत का पेट भर सकें, उसे अन्न उपलब्ध करा सके। और इसके बाद यह नारी-षक्ति हमारे सामने सर्वमंगल, भैरवी, चंडिका, ललिता और भवानी के जिन रूपों में प्रकट होती हैं, उसका मूल उद्देष्य जगत का कल्याण करना होता है, मंगल करना होता है।
नवरात्री की ये नौ रातों को मुख्यतः तीन-तीन रातों में भी बाँटा जा सकता है। प्रथम तीन रातों में माँ की आराधना दुर्गा (काली) के रूप में की जाती है। काली, यानी कि हमारे अंदर की पाषविक एवं अपवित्र वृत्त्तियों को नष्ट करने की आराधना। फिर तीन दिन उनकी अर्चना होती है लक्ष्मी के रूप में, जिसे हम भौतिक एवं आध्यात्मिक-सम्पत्ति की अर्चना करना कह सकते हैं। अंतिम तीन दिनों में उनका स्वरूप सरस्वती का होता है। सरस्वती यानी कि प्रज्ञा, ज्ञान, जो जीवन की सम्पूर्ण सफलता के लिए जरूरी है। इस प्रकार नवरात्री के दौरान हम शक्ति के उन सभी रूपों का अह्वान करते हैं, जो मानव के भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि के लिए निहायत ही जरूरी हैं। यह एकांगी जीवन-दर्षन को नहीं बल्कि एक सर्वाग जीवन-दर्षन को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। एक के अभाव में दूसरा लंगड़ा हो जाता है। प्रकृति की आराधना के बिना पुरुष कभी पूरा नहीं हो सकता। गर्मी की शुरुआत होने पर जब सम्पूर्ण प्रकृति अपने में उत्सव मना रही होती है, तो हम सभी नवरात्री के माध्यम से उसके इस उत्सव में शामिल हो जाते हैं। इससे अद्भूत एवं आल्हादकारी संयोग भला और क्या हो सकता है।
नोट- यह लेख सबसे पहले दैनिक-जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हो चुका है