निश्चित तौर पर राम हमारे काम के है, और बहुत-बहुत काम के। किन्तु किस रूप में और किस तरह? यहाँ हमारे सामने दो रास्ते हैं, और यह हम पर है कि इन दो रास्तों में से हम अपने लिए कौन सा रास्ता चुनते हैं, और इसी रास्ते से सब कुछ बदल जायेगा। पहला रास्ता यह मानने का रास्ता है कि राम भगवान ही थे। दूसरा रास्ता है कि वे भगवान बने। यदि आप पहले वाले रास्ते पर चलते हैं, तो जाहिर है कि आपको विशेष कुछ करना नहीं पड़ता है। रामचरितमानस का अखंड पाठ, थोड़ी-बहुत पूजा-अर्चना, व्रत-उपवास पर्याप्त है। ज्यादा लोग यही कर रहे हैं। लेकिन यदि आपने अपने लिए दूसरा वाला मार्ग चुन लिया तो आपको बहुत कुछ करना पड़ जायेगा, वह सब कुछ करना पड़ेगा, जो राम ने किया और उसी करने ने एक राजपुत्र को भगवान बना दिया।
यह हमारे मनीषियों की विलक्षण एवं दूरदृष्टि का परिणाम है कि भारत में भगवान को पहले मानव शरीर के रूप में इस धरती पर आना पड़ा और यहाँ अपने कार्यों और विचारों से स्वयं को उसी तरह भगवान सिद्ध करना पड़ा जिस तरह किसी को भी स्वयं को एक सफल योद्धा, शासक, चिंतक, डॉक्टर, उद्यमी या किसान आदि सिद्ध करना पड़ता है। भारतीय दर्शन का घोष है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ।’ इसका अर्थ यह हुआ कि हम सबमें ब्रह्म बनने की संभावना है। राम ने अपनी इस संभावना को पकड़कर अपने जीवन और अपनी चेतना की यात्रा शुरू कर दी और अंततः अपनी मंजिल को पा लिया। औरों ने भी किया और पहुँचं। जी हाँ, आप भी कीजिए, तो पहुँच जायेंगे। इससे कतई संदेह नहीं कि ‘‘आप भी बन सकते हैं राम।?”
राजपुत्र से भगवान बनने की इस उच्चतम् यात्रा के केन्द्र में रहा है- राम के द्वारा अपनी चेतना को निरंतर परिष्कृत करते रहने का प्रयास। आप शायद इस बात पर विश्वास नहीं कर सकेंगे कि जो काँच चमकता है, चिकना है, पारदर्शी है, वह रेत और गिट्टी से बना हुआ होता है। रेत और पत्थर ग्लास के कच्चे माल होते हैं, जिसे विभिन्न चरणों में शोधित करके काँच में बदला जाता है। यही है दूषित चेतना को परिष्कृत करके एक ऐसी पवित्र चेतना में परिवर्तित कर देना। कि वह भगवान या भगवान जैसा लगने लगे।
राम सीता को पहली बार जनक जी की वाटिका में देखते हैं। सीता की उस ‘अलौकिक शोभा’ को देखकर हमेशा ‘पुनीत’ रहने वाला राम का मन ‘क्षुब्ध’ हो उठता है। उन्हें लगता है कि ‘कामदेव ने अपना डंका बजा दिया है।’ अपनी चेतना की इस स्थिति से राम बेचैन हो उठते है, चिंतित हो उठते है। उनका मन अपराधबोध से भर उठता है। तो अब सवाल यह उठा कि वे अपने इस अपराधबोध से छुटकारा पाये तो कैसे पायें? राम ने इसके लिए तरीका यह अपनाया कि पहले तो उन्होंने अपनी यह बात अपने छोटे भाई लक्ष्मण को बताई, और बाद में जाकर अपने गुरु विश्वामित्र को भी बता दी। यदि राम यह बात अपने मन में रख लेते, तो उससे भला क्या फर्क पड़ता, क्योंकि हम सब यही तो करते हैं। राम ब्रह्माण्ड एवं चेतना के इस अटूट नियम को जानते थे कि ‘अपराध को स्वीकार करने का अर्थ होता है- अपराधबोध से मुक्त हो जाना’ और इस प्रकार अपनी चेतना को प्रदूषित होने से बचा लेना।
जो आपको प्यार करता है, उससे प्यार करना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा तो हर कोई करता है। लेकिन जैसा कि ईसा मसीह ने कहा था ‘बात तो तब है, जब तुम उसे प्यार करो, जो तुमसे घृणा करता है।’ अपनी चेतना को परिष्कृत करने की दृष्टि से यह दूसरा बड़ा तरीका है, जिसे राम कैकई के साथ अपने व्यवहार में अपनाते हैं। कैकई कारण थी राम के वनवास की, दशरथ के मरण की और अयोध्या के दुख एवं उथल-पुथल की। इसके बावजूद जब पूरी अयोध्या राम को वनवास जाने से लौटाने के लिए जाती है, तो राम सबसे पहले कैकई से मिलते हैं, और पूरे आदर के साथ मिलते हैं। वे इस घटना के लिए ‘समय और भाग्य’ को जिम्मेदार ठहराते हुए कैकई को अपराध भाव से मुक्त करने की कोशिश करते है। चैदह वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटने पर भी राम सबसे पहले कैकयी से मिलते हैं।
अपनी चेतना को परिष्कृत करके इस स्वरूप तक तथा इस ऊँचाई तक पहुँचा देना कि जिसमें न तो किसी के प्रति अतिरिक्त राग है, और न ही रंज, कोई आसान काम नहीं है। बेहतर होगा कि रामनवमी के इस पावन पर्व पर हम सभी भगवान राम के केवल इसी विन्दु पर स्वयं की चेतना को परख कर देखें। राम को जन-जन के हृदय का हिसा बना देने वाले महाकवि तुलसीदास ने अपने जीवन के अस्सीवें साल में जब स्वयं को परखने की कोशिश की, तो उन्हें अपने निष्कर्ष को इन शब्दों में लिखना पड़ा था कि ‘कबहुँक हौं वह रहनि रहौंगो। श्री रघुनाथ कृपालु कृपा ते, संत सुभाऊ गहौंगो।’ यह संत-स्वभाव ही चेतना की विशुद्धता की पराकाष्ठा है। राम ने उस पराकाष्ठा को प्राप्त किया। कोई भी इसे प्राप्त कर सकता है। जी हाँ, आप भी।