“प्लीज, आप मुझे अमेरीका का उदाहरण मत दीजिये। धन के मामले में वह बड़ा हो सकता है। है ही। लेकिन रिलेशनशिप के मामले में नहीं। वहाँ के रिलेशनशिप के सेन्टर में लॉ है- मदर इन लॉ, ब्रदर इन लॉ आदि। जिस रिलेशन को लॉ बनाता है, उस रिलेशन को लॉ तोड़ भी सकता है। क्या हमारे यहाँ ऐसा है?”
उनका उत्तर था ‘नहीं’। मुझे लगा कि शायद बात उनकी समझ में आ गई थी। आज हमारी आदत हो गई है बात-बात में अमेरिका की दुहाई देने की कि वहाँ ऐसा है, वहाँ वैसा है। इस सब्ज बाग ने न जाने कितने नौजवानों की, खासकर आई.टी. इंजीनियरों के आँखों की नींद छीन ली है। उन्हें अपना देश ‘गोबर का ढेर’ और ‘सँपेरों की भीड़’ दिखने लगा है। क्या सालाना पैकेज ही जिन्दगी है, और यही पैकेज इस बात का फैसला करेगा कि हमारे रिलेशनशिप दूसरों के साथ कैसे रहेंगे, और कब तक रहेंगे।
मैंने महसूस किया है मेरे मित्रों कि हमारे कुछ रिलेशन्स ऐसे होते हैं, जो एनालिसिस से परे होते है। इन संबंधों की व्याख्या, इन संबंधों की समीक्षा, इन संबंधों की आलोचना या इन संबंधों की मीन-मेख निकालने के बारे में सोचा भी नहीं जाना चाहिए। यदि आपने इनके बारे में, इन संबंधों की अच्छाई और बुराई के बारे में सोचना शुरु किया, तो इसका मतलब यह हुआ कि आपने लकड़ी की किवाड़ में छोटा सा ही सही, लेकिन एक छेद कर दिया है। मौका पाकर किसी दिन इस छेद में एक घुन घुस जायेगा। धीरे-धीरे अनजाने में उसमें घुन की तादाद बढ़ती चली जाएगी, और एक दिन आप पायेंगे कि वह किवाड़ घुन की गिरफ्त में इतनी ज्यादा आ चुकी है कि उसको गिरा देने के लिए एक हल्का सा धक्का ही काफी है।
मैं जानता हूँ कि आप जानना चाहेंगे कि वे कौन-कौन से रिश्ते हैं, जिनकी समीक्षा नहीं की जानी चाहिए। ये रिश्ते हैं- माता-पिता, पति-पत्नि और गुरु-शिष्य के आपसी रिश्ते। ये तो बस हैं। क्यू हैं, कैसे हैं, ऐसे हों, वैसे हों, इनका कोई अर्थ नहीं होता। ये तो बस है, क्योंकि इनके केन्द्र में कोई लॉ नहीं होता है, कोई कानून नही होता है। यदि कोई कानून है भी तो वह कानून भी समीक्षा से परे है। हिन्दुस्तान की इस ताकत के सामने मेरे मित्रों, अमेरीका मुझे निरीह नजर आता है।