“आप लोग मुझे किस लैंग्वेज में सुनना चाहेंगे, हिन्दी में या अंग्रेजी में?”, उनके इस प्रश्न के जवाब में जो उत्तर गूंजा, वह लगभग शोरगुल जैसा था, लेकिन ऐसा भी नहीं कि समझ में न आया हो कि कहा क्या जा रहा है। जब यह शोरगुल, जो लगभग एक मिनट तो चला ही होगा, थम गया, तो उस शांत माहौल में एकदम पीछे से एक गंभीर सी आवज उभरी, “जावेद साहब, आप उस जुबान में बोलिए- जो आपके दिल के सबसे करीब हो।” करीब डेढ़ हजार लोगों से खचाखच भरे हुए मुगल टैंट के पंडाल में एक बार फिर से इस आवाज के समर्थन में तालियां बज उठीं। जावेद अख्तर साहब, जी हां, वही फिल्मी दुनिया वाले जावेद, पचपन मिनट तक बोले, खूब बोले और लोग अपनी सांसों को नियमित करके भाव-विभोर होकर उन्हें सुनते रहे, सुनते रहे। इस सुनने वालें में यंग लड़के-लड़कियां थीं, फैशनेबल अधेड़ औरते थीं और कुछ बुद्धिजीवी किस्म के जीव भी थे। आप अंदाजा लगाइए कि किस जुबान को जावेद साहब के दिल के करीब होने का सौभाग्य मिला हुआ होगा।
लोग कॉफी लेने के लिए बेताब थे। उन्हें जल्दी थी। इतने में एक राजस्थानी चाय वाला एक बड़े से हंडे में चाय लेकर आया। इस देशी चाय को आए कुछ ही देरी हुई थी कि इसमें से तीन-चैथाई भीड़ उधर भाग ली। पता नहीं उस बेचारे ने कैसे भीड़ को मैनेज किया होगा। जी हां, ये दो घटनाएं हैं जो सच्ची हैं। ये घटनाएं जयपुर लिट्रचर फेस्विल के पहले ही दिन घटीं और जिन्हें मैंने देखा ही नहीं बल्कि गहराई से महसूस भी किया। क्या महसूस किया? महसूस यह किया है कि आदमीं, हर आदमी चाहे वह जितना भी बुद्धिजीवी और पश्चिमजीवी क्यों न हो, चाहता वह अपने मूल को ही है, क्योंकि वह अपने मूल के हाथ, अपनी जड़ों के साथ, अपने ओरिजिनल कानशॅस के साथ रहना चाहता है। हम जैसे हैं, वैसे बना रहना भी सबसे आसान होता है। इसके लिए अलग से कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। वहीं पेड़ सच्चे फूल-फल और सच्चा स्वाद दे सकता है, जिसकी जड़ें अपनी मिट्टी में होती है, अपनी ही भूमि में।